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Sunday, January 24, 2010

भारत मे अंग्रेजों का आगमन और सत्ता पर अधिकार

भारत मे अंग्रेजों का आगमन और सत्ता पर अधिकार

 

भारत मे अंग्रेजों का आगमन को एक नये युग का सूत्रपात माना जा सकता है।  सन् 1600 ई. में कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ से,  भारत से व्यापार करने की अनुमति ली।   इसके लिए उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक एक कम्पनी बनाई।  उस समय तक पुर्तगाली यात्रियों ने  भारत  की यात्रा का समुद्री मार्ग  खोज निकाला था।  उस मार्ग की जानकारी लेकर तथा व्यापार की तैयारी करके, इंग्लैण्ड से सन् 1608 में 'हेक्टर' नामक एक ज़हाज़ भारत के लिए रवाना हुआ।  इस ज़हाज़ के कैप्टन का नाम हॉकिंस था।  हेक्टर नामक ज़हाज़ सूरत के बन्दरगाह पर आकर रुका।  उस समय सूरत भारत का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। 

 

उस समय भारत पर मुगल बादशाह ज़हाँगीर का शासन था।  हॉकिंस अपने साथ इंग्लैण्ड के बादशाह जेम्स प्रथम का एक पत्र ज़हाँगीर के नाम लाया था।  उसने ज़हाँगीर के राज-दरबार में स्वयं को राजदूत के रूप में पेश किया तथा घुटनों के बल झुककर उसने बादशाह ज़हाँगीर को सलाम किया।  चूंकि वह इंग्लैण्ड के सम्राट का राजदूत बनकर आया था, इसलिए ज़हाँगीर ने भारतीय परम्परा के अनुरूप अतिथि का विशेष स्वागत किया तथा उसे सम्मान दिया।  ज़हाँगीर को क्या पता था कि जिस अंग्रेज कौम के इस तथाकथित नुमाइन्दे को वह सम्मान दे रहा है, एक दिन इसी कौम के वंशज भारत पर शासन करेंगे तथा हमारे शासकों तथा जनता को अपने सामने घुटने टिकवा कर सलाम करने को मजबूर करेंगे। 

 

उस समय तक पुर्तगाली कालीकट में अपना डेरा जमा चुके थे तथा भारत में व्यापार कर रहे थे।  व्यापार करने तो हॉकिंस भी आया था।  उसने अपने प्रति ज़हाँगीर की सहृदय तथा उदार व्यवहार को देखकर अवसर का पूरा लाभ उठाया।  हॉकिंस ने ज़हाँगीर को पुर्तगालियों के खिलाफ भड़काया तथा ज़हाँगीर से कुछ विशेष सुविधाएँ तथा अधिकार प्राप्त कर लिए।  उसने इस कृपा के बदले अपनी सैनिक शक्ति बनाई। 

 

पुर्तगालियों के ज़हाज़ों को लूटा।  सूरत में उनके व्यापार को भी ठप्प करने के उपाय किए।  तथा फिर इस तरह 6 फरवरी सन् 1663 को बादशाह ज़हाँगीर से एक शाही फरमान जारी करवा लिया कि अंग्रेजों को सूरत में कोठी (कारखाना) बनाकर तिजारत या व्यापार करने की इजाजत दी जाती है।  इसी के साथ ज़हाँगीर ने यह इजाजत भी दे दी कि उसके राज-दरबार में इंग्लैण्ड का एक राजदूत रह सकता है।  इसके फलस्वरूप सर टॉमस रो सन् 1615 में राजदूत बनकर भारत आया।  उसके  प्रयासों से सन् 1616 में अंग्रेजों को कालीकट तथा मछलीपट्टनम में कोठियाँ बनाने की अनुमति प्राप्त हो गई। 

 

शाहजहाँ के शासन-काल में, सन् 1634 में अंग्रेजों ने शाहजहाँ से कहकर कलकत्ते से पुर्तगालियों को हटाकर केवल स्वयं व्यापार करने की अनुमति ले ली।  उस समय तक हुगली के बन्दरगाह तक अपने ज़हाज़ लाने पर अंग्रेजों को भी चुंगी देनी पड़ती थी।  किन्तु शाहजहाँ की एक पुत्री का इलाज करने वाले अंग्रेज डॉक्टर ने हुगली में ज़हाज़ लाने तथा माल की चुंगी चुकाना क्षमा करवा लिया।  औरंगज़ेब के शासन-काल में एक बार फिर पुर्तगालियों का प्रभाव बढ़ चुका था।  मुंबई का टापू उनके अधिकार में था।  सन् 1661 में इंग्लैण्ड के सम्राट को यह टापू, पुर्तगालियों से दहेज में मिल गया।  बाद में सन् 1668 में इस टापू को ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इंग्लैण्ड के सम्राट से खरीद लिया।  इसके पश्चात अंग्रेजों ने इस मुंबई टापू पर किलेबंदी भी कर ली। 

 

सन् 1664 में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ही तरह भारत में व्यापार करने के लिए फ्रांसीसियों की एक कम्पनी आई।  इन फ्रांसीसियों ने सन् 1668 में सूरत में 1669 में मछलीपट्टनम में, तथा सन् 1774 में पाण्डिचेरी में अपनी कोठियां बनाई।  उस समय उनका प्रधान था – दूमास।  सन् 1741 में दूमास की जगह डूप्ले की नियुक्ति हुई।  लिखा है-''डूप्ले एक अत्यंत योग्य तथा चतुर सेनापति था।  उसके पूर्वाधिकारी दूमास को मुगल शासन के द्वारा 'नवाब' का खिताब मिला हुआ था।  इसलिए जब डूप्ले आया तो उसने स्वयं ही अपने को 'नवाब डूप्ले' कहना शुरू कर दिया।  डूप्ले पहला यूरोपीय निवासी था जिसके मन में भारत के अंदर यूरोपियन साम्राज्य कायम करने की इच्छा उत्पन्न हुई।  डूप्ले को भारतवासियों में कुछ खास कमजोरियां नज़र आईं।  जिनसे उसने पूरा-पूरा लाभ उठाया। 

 

एक यह कि भारत के विभिन्न नरेशों की इस समय की आपसी ईर्ष्या प्रतिस्पर्धा तथा लड़ाइयों के दिनों में विदेशियों के लिए कभी एक तथा कभी दूसरे का पक्ष लेकर धीरे-धीरे अपना बल बढ़ा लेना कुछ कठिन न था, तथा दूसरे यह कि इस कार्य के लिए यूरोप से सेनाएं लाने की आवश्यता न थी।  बल, वीरता तथा सहनशक्ति में भारतवासी यूरोप से बढ़कर थे।  अपने अधिकारियों के प्रति वफ़ादारी का भाव भी भारतीय सिपाहियों में जबर्दस्त था।  किन्तु राष्ट्रीयता के भाव या स्वदेश के विचार का उनमें नितांत अभाव था।  उन्हें बड़ी आसानी से यूरोपियन ढंग से सैनिक शिक्षा दी जा सकती थी तथा यूरोपियन अधिकारियों के अधीन रखा जा सकता था।  इसलिए विदेशियों का यह सारा काम बड़ी सुन्दरता के साथ भारतीय सिपाहियों से निकल सकता था।  डूप्ले को अपनी इस महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में केवल एक बाधा नज़र आती थी तथा वह थी अंग्रेजों की प्रतिस्पर्धा। ''

 

डूप्ले की शंका सही थी।  अंग्रेजों की निगाहें भारत के खजाने तथा यहाँ शासन करने पर लगी हुई थीं।  इसका एक प्रमाण यह मिलता है कि सन् 1746 में कर्नल स्मिथ नामक अंग्रेज ने जर्मनी के साथ मिलकर बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा विजय करने तथा उन्हें लूटने की एक योजना गुपचुप तैयार करके यूरोप भेजी थी। 

अपनी योजना में कर्नल स्मिथ ने लिखा था-

"मुगल साम्राज्य सोने तथा चाँदी से लबालब भरा हुआ है।  यह साम्राज्य सदा से निर्बल तथा असुरक्षित रहा है।  बड़े आश्चर्य की बात है कि आज तक यूरोप के किसी बादशाह ने जिसके पास जल सेना हो, बंगाल फतह करने की कोशिश नहीं की।  एक ही हमले में अनंत धन प्राप्त किया जा सकता है, जिससे ब्राजील तथा पेरु (दक्षिण अमेरिका) की सोने की खाने भी मात हो जाएंगी। "

"मुगलों की नीति खराब है।  उनकी सेना तथा भी अधिक खराब है।  जल सेना उनके पास है ही नहीं।  साम्राज्य के अंदर लगातार विद्रोह होते रहते हैं।  यहाँ की नदियाँ तथा यहाँ के बन्दरगाह, दोनों विदेशियों के लिए खुले पड़े हैं।  यह देश उतनी ही आसानी से फतह किया जा सकता है, जितनी आसानी से स्पेन वालों ने अमरीका के नंगे बाशिंदों को अपने अधीन कर लिया था। "
 
"अलीवर्दी खाँ के पास तीन करोड़ पाउण्ड (करीब 50 करोड़ रुपये) का खजाना मौजूद है।  उसकी सालाना आमदनी कम से कम बीस लाख पाउण्ड होगी।  उसके प्रांत समुद्र की ओर से खुले हैं।  तीन ज़हाज़ों में डेढ़ हजार या दो हजार सैनिक इस हमले के लिए काफी होंगे। "  (फ्रांसिस ऑफ लॉरेन को कर्नल मिल का पत्र)

जनरल मिल ने कुछ अधिक ही सपना देखा था।  किन्तु इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अंग्रेज भी अपने ऐसे ही मनसूबों को पूरा करने में जुटे हुए थे।  दरअसल विदेशियों द्वारा भारत को गुलाम बनाने की ये कोशिशें, भारतवासियों के लिए बड़ी लज्जाजनक बातें थीं-विशेष रूप से इसलिए कि इस योजना में स्वयं भारत के लोगों ने साथ दिया तथा आगे चलकर अपने पैरों में गुलामी की बेड़ियां पहन लीं।

जनरल मिल ने लिखा है-   "अठारहवीं सदी के मध्य में बंगाल के अंदर हमें यह लज्जानक दृश्य देखने को मिलता है कि उस समय के विदेशी ईसाई कुछ हिन्दुओं के साथ मिलकर देश के मुसलमान शासकों के खिलाफ बगावत करने तथा उनके राज को नष्ट करने की साजिशें कर रहे थे।  अंग्रेज कम्पनी के गुप्त मददगारों में खास कलकत्ते का एक मालदार पंजाबी व्यापारी अमीचंद था।  उसे इस बात का लालच दिया गया कि नवाब को खत्म करके मुर्शिदाबाद के खजाने का एक बड़ा हिस्सा तुम्हें दे दिया जाएगा तथा इंगलिस्तान में तुम्हारा नाम इतना अधिक होगा, जितना भारत में कभी न हुआ होगा।  कम्पनी के मुलाज़िमों को आदेश था कि अमीदंच की खूब खुशामद करते रहो। "


 
कम्पनी के वादों तथा अमीचंद की नीयत ने मिलकर, बंगाल के तत्कालीन शासक अलीवर्दी खाँ के तमाम वफ़ादारों को विश्वासघात करने के लिए तैयार कर दिया।  उधर कलकत्ते मे अंग्रेजों की तथा चन्द्रनगर में फ्रेंच लोगों की कोठियां बनाना तथा किलेबन्दी करना लगातार जारी था।  अलीवर्दी खाँ को इसकी जानकारी थी।  फिर जब उसे अमीचंद तथा दूसरे विश्वासघातकों की चाल का पता चला तो उसने उनकी सारी योजना विफल कर दी।  किन्तु इन सब घटनाओं से अलीवर्दी खाँ सावधान हो गया तथा पुर्तगालियों, अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों-तीनों कौंमो के मनसूबों का उसे पता चल गया। 

 

बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ को कोई बेटा न था, इसलिए उसने अपने नवासे सिराज़-उज़-दौला को, अपना उत्तराधिकारी बनाया था।  अलीवर्दी खाँ बूढ़ा हो चला था।  वह बीमार रहता था तथा उसे अपना अंत समय निकट आता दिखाई दे रहा था।  इसलिए एक दूरदर्शी नीतिज्ञ की तरह अलीवर्दी खाँ ने अपने नवासे सिराज़-उज़-दौला को एक दिन पास बुलाकर कहा-"मुल्क के अंदर यूरोपियन कौमों की ताकत पर नज़र रखना।  यदि स्वयं मेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से भी आजाद कर देता अब मेरे बेटे यह काम तुम्हें करना होगा।  तैलंग देश में उनकी लड़ाइयाँ तथा उनकी कूटनीति की ओर से तुम्हें होशियार रहना चाहिए।  अपने-अपने बादशाहों के बीच के घरेलू झगड़ों के बहाने इन लोगों ने मुगल सम्राट का मुल्क तथा शहंशाह की रिआया का धन माल छीनकर आपस में बांट लिया है।  इन तीनों यूरोपियन कौमों को एक साथ कमजोर करने का ख्याल न करना।  अंग्रेजों की ताकत बढ़ गई है।  पहले उन्हें खत्म करना।  जब तुम अंग्रेजों को खत्म कर लोगे तब, बाकी दोनों कौमें तुम्हें अधिक तकलीफ न देंगी।  मेरे बेटे, उन्हें किला बनाने या फौजें रखने की इजाजत न देना।  यदि तुमने यह गलती की तो, मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा। " 

 

10 अप्रैल सन् 1756 को नवाब अलीवर्दी खाँ की मृत्यु हो गई।  इसके बाद सिराज़-उज़-दौला, अपने नाना की गद्दी पर बैठा।  सिराज़-उज़-दौला की आयु उस समय चौबीस साल थी।  ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीतियों ने साजिशों का पूरा जाल फैला रखा था।  अंग्रेज नहीं चाहते थे कि सिराज़-उज़-दौला शासन करे।  इसलिए उन्होंने सिराज़-उज़-दौला का तरह-तरह से अपमान करना तथा उसे झगड़े के लिए उकसाने का काम शुरू कर दिया।  सिराज़-उज़-दौला जब मुर्शीदाबाद की गद्दी पर नवाब की हैसियत से बैठा तो रिवाज के अनुसार उसके मातहतों को, वजीरों, विदेशी कौमों के वकीलों को, राज-दरबार में हाजिर होकर नज़रे पेश करना जरूरी था।  किन्तु अंग्रेज कम्पनी की तरफ़ से सिराज़-उज़-दौला को कोई नज़र नहीं भेंट की गई।

 

कम्पनी हर हाल मे अपने व्यापारिक हितों की रक्षा और उनका विस्तार चाहती थी। कम्पनी १७१७ मे मिले दस्तक पारपत्र का प्रयोग कर के अवैध व्यापार कर रही थी जिस से बंगाल के हितों को नुकसान होता था । नवाब जान गया था कि कम्पनी सिर्फ़ व्यापारी नही थी और साथ सिराज़-उज़-दौला का नाना अलीवर्दी खाँ  मरने से पहले उसको होशियार कर गया था। १७५६ की संधि नवाब ने मजबूर हो कर की थी जिस से वो अब मुक्त होना चाहता था। कम्पनी ख़ुद ऐसा शासक चाहती थे जो उसके हितों की रक्षा करे । मीर जाफर , अमिचंद, जगतसेठ आदि अपने हितों की पूर्ति हेतु कम्पनी से मिल कर जाल बिछाने मे लग गए । सिराज़-उज़-दौला कम्पनी के इस रवैये नाराज़ हो गया जिसका परिणाम प्लासी के युद्ध के रूप में सामने आया।

 

प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में २२ मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे 'प्लासी' नामक स्थान में हुआ था. इस युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर थी बंगाल के नवाब की सेना. कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नबाव सिराज़ुद्दौला को हरा दिया था .किंतु इस युद्ध को कम्पनी की जीत नही मान सकते कयोंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक, उसके दरबारी, तथा राज्य के अमीर सेठ जगत सेठ आदि से कलाइव ने षडंयत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध मे भाग भी नही लिया था युद्ध के फ़ौरन बाद मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है|

 

इस युद्ध से कम्पनी को बहुत लाभ हुआ । वह आई तो व्यापार हेतु थी किंतु बन गई शासक। इस युद्ध से प्राप्त संसाधनो का प्रयोग कर कम्पनी ने फ्रांस की कम्पनी को कर्नाटक के तीसरे और अन्तिम युद्ध मे निर्णायक रूप से हरा दिया था । इस युद्ध के बाद बेदरा के युद्ध मे कम्पनी ने ड्च कम्पनी को हराया था। कम्पनी ने इसके बाद कठपुतली नवाब मीर जाफर को सत्ता दे दी किंतु ये बात किसी को पता न थी के सत्ता कम्पनी के पास है. नवाब के दरबारी तक उसे "क्लाइव का गधा" कहते थे कम्पनी के अफ़सरों ने जम कर रिश्वत बटोरी बंगाल का व्यापार बिल्कुल तबाह हो गया था इसके अलावा बंगाल मे बिल्कुल अराजकता फ़ैल गई थी।

 

प्लासी के युद्ध में जीत से कम्पनी को लाभ स्वरूप प्राप्त हुआ-     भारत के सबसे समॄद्ध तथा घने बसे भाग से व्यापार करने का एकाधिकार, बंगाल के शासक पर भारी प्रभाव और बंगाल पर कम्पनी ने अप्रत्यक्ष सम्प्रभुता, बंगाल के नवाब से नजराना, भेंट, क्षतिपूर्ति के रूप मे भारी धन वसूली, एक सुनिश्चित क्षेत्र २४ परगना की जागीर का राजस्व मिलने लगा। बंगाल पर अधिकार व एकाधिकारी व्यापार से इतना धन मिला कि इंग्लैंड से धन मँगाने कि जरूरत नही रही ,इस धन को भारत के अलावा चीन से हुए व्यापार मे भी लगाया गया । इस धन से सैनिक शक्ति गठित की गई जिसका प्रयोग फ्रांस तथा भारतीय राज्यों के विरूद्ध किया गया । देश से धन निष्काष्न शुरू हुआ जिसका लाभ इंग्लैंड को मिला वहां इस धन के निवेश से ही औद्योगिक क्रांति शुरू हुई ।

 

इस घटना से एक नई राजनेतिक शक्ति का उदय हुआ। कम्पनी के हित राजनीति से जुड़ गए अऔर् वह प्रभुत्व प्राप्ति मे जुट गई। मुग़ल साम्राज्य के दुर्बलता भी साफ हो गई .कम्पनी को भारत के शासक वर्ग की चरित्र, फूट का पता लग गया। प्लासी के युद्ध के बाद सतारुध हु॥ मीर जाफ़र अपनी रक्षा तथा पद हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी पर निर्भर था। जब तक वो कम्पनी का लोभ पूरा करता रहा पद पे भी बना रहा। उसने खुले हाथो से धन लुटाया, किंतु प्रशाशन सभांल नही सका, सेना के खर्च, जमींदारों की बगावातो से हालत बिगड़ रहा था, लगान वसूली मे गिरावट आ गई थी, कम्पनी के कर्मचारी दस्तक का जम कर दुरूपयोग करने लगे थे वो इसे कुछ रुपयों के लिए बेच देते थे इस से चुंगी बिक्री कर की आमद जाती रही थी बंगाल का खजाना खाली होता जा रहा था। हाल्वेल ने माना की सारी मुसीबत की जड़ मीर जाफर है, उसी समय जाफर का बेटा मीरन मर गया जिस से कम्पनी को मौका मिल गया था उसने मीर कासिम जो जाफर का दामाद था को सत्ता दिलवा दी। इस हेतु एक संधि भी हुई २७ सितम्बर १७६० को कासिम ने ५ लाख रूपये तथा बर्दवान, मिदनापुर, चटगांव के जिले भी कम्पनी को दे दिए। इसके बाद धमकी मात्र से जाफ़र को सत्ता से हटा दिया गया मीर कासिम सत्ता मे आ गया। इस घटना को ही १७६० की क्रांति कहते है।

 

मीर कासिम ने रिक्त राजकोष, बागी सेना, विद्रोही जमींदार जेसी  समस्याओ का हल निकाल लिया। बकाया लागत वसूल ली, कम्पनी की मांगे पूरी कर दी, हर क्षेत्र मे उसने कुशलता का परिचय दिया। अपनी राजधानी मुंगेर ले गया, ताकि कम्पनी के कुप्रभाव से बच सके सेना तथा प्रशासन का आधुनिकीकरण शुरू कर दिया। उसने दस्तक पारपत्र के दुरूपयोग को रोकने हेतु चुंगी ही हटा दी। मार्च १७६३ मे कम्पनी ने इसे अपने विशेषाधिकार का हनन मान युद्ध शुरू कर दिया। लेकिन इस बहाने के बिना भी युद्ध शुरू हो ही जाता क्योंकि दोनों पक्ष अपने अपने हितों की पूर्ति मे लगे थे। कम्पनी को कठपुतली चाहिए थी लेकिन मिला एक योग्य हाकिम। १७६४ युद्ध से पूर्व ही कटवा, गीरिया, उदोनाला, की लडाईयो मे नवाब हार चुका था उसने दर्जनों षड्यन्त्र्कारियो को मरवा दिया (वो मीर जाफर का दामाद था और जानता था कि सिराजुदोला के साथ क्या हुआ था।)

 

मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नही पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी । जनवरी 1764 मे मीर कासिम उस से मिला। उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे। इन्हीं परिस्थितियों मे बक्सर की लड़ाई, 23 अक्टूबर 1764 में बक्सर शहर के करीब, ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नबाब मीर कासिम, अवध के नबाब शुजाउद्दौला तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच लड़ी गई थी  जिसमे हैक्टर मुनरो के सेनापतित्व में अंग्रेज कंपनी ने तीनो को हरा दिया था। लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई और इसके परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और बांग्लादेश का दीवानी और राजस्व अधिकार अंग्रेज कंपनी के हाथ चला गया ।

 

बक्सर के युद्ध के परिणाम बेहद मह्ताव्पूर्ण निकले। सहज ही प्रयास से पूरा अवध कम्पनी को मिल गया था। नवाब शुजाउदौला की हालत इतनी गिर गई की उसने कम्पनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था (मई 1765)। शाह आलम भी कम्पनी की शरण मे आ गया था। बंगाल अब कम्पनी का अधीनस्थ राज्य बन गया, अवध उस पर आश्रित तथा मुग़ल सम्राट कम्पनी का पेंशन भोगी। ये सभी कार्य इलाहाबाद की संधि (16 अगस्त 1765) से हुआ इस के बाद बंगाल, बिहार, उडिसा, झारखण्ड की दीवानी कम्पनी को मिल गई थी। बंगाल मे द्वैध शासन शुरू हो गया। इसके बाद दिल्ली पर भी अंग्रेजों का प्रभाव और फ़िर अधिकार हो गया।


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Haider Ajaz

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