Jai Hind Jai Bharat

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Wednesday, January 20, 2010

Article in Hindi

  • वर्ण व्यवस्था के बारे में आशंकाएं और उत्तर

    इस संलेख के सम्मानित पाठकों ने अंतिम आलेख 'वर्ण व्यवस्था की सच्चाई' पर कुछ संशयात्मक टिप्पणीयाँ की हैं जिनके विस्तृत उत्तर देना आवश्यक है ताकि भारत की ऐतिहासिक सच्चाईयों का निरूपण सरल, सहज और कारगर हो सके. यहटिप्पणी इस प्रकार है -  

    "आपने बात-बात पर लैटिन, हिब्रू शब्दों का प्रयोग करके इतिहास को अपने हिसाब से समझने/समझाने की वैसी ही कोशिश की है जैसा अंग्रेजों ने 'आर्य' शब्द का निकालकर भारत के इतिहास को कलुषित करने के लिये किया था (जो अब पूर्णत: झूठ साबित हो चुका है)

    "मेरे मन में भी कुछ प्रश्न हैं जो आप द्वारा उठाये गये प्रश्नों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं-

    १) क्या वर्ण-व्यवस्था अपने 'पूर्ण रूप' में कभी लागू हो पायी थी?

    २) वर्ण व्य्वस्था किसी आधुनिक नियम की भाँति किसी एक दिन लागू कर दी गयी या यह कई शताब्दियों तक धीरे-धीरे और बहुत ही धुंधले रूप में प्रकट हुई?

    ३) यदि यह किसी धर्माचार्य या राजा द्वारा प्रचलित की गयी तो किसको ब्राह्मण, किसको क्षत्रिय आदि माना गया? क्या ऐसा करना व्यावहारिक लगता है?

    ४) यदि यह शनै:-शनै: क्रमिक विकास (इवोलूशन) जैसा हुआ तो लोगों को इसमें आपत्ति क्या है? यह तो प्राकृतिक है।"

    मेरे स्पष्टीकरण :
    भाषा प्रसंग
    भारत की सभी भाषाएँ यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य हैं और इस परिवार की सभी बाषाओं के उद्भव परस्पर सम्बंधित हैं जैसा कि अन्य भाषा परिवारों में है. इस प्रकार लैटिन, ग्रीक, हेब्रू आदि भाषाएँ हमारी प्राचीन भाषाओं को समझाने में सहायक हैं. इसके अतिरिक्त ये भाषाएँ विश्व की प्राचीनतम विकसित भाषाएँ हैं जिनसे इस परिवार की सभी भाषाएँ विकसित हुई हैं. इनका आश्रय लेना हमारे लिए इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारे वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और उस भाषा के बारे में हमेंबहुत अधिक ज्ञान नहीं है. वेदों और शास्त्रों के अब तक प्रचलित सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधारित हैं और वे हमें इतिहास का कुछ ज्ञान कारन के स्थान पर भ्रम और संशयों को जन्म देते रहे हैं. इस कारण से सभी अनुवादों में भी परस्पर भारी भिन्नता पाई जाती है.

    श्री अरविन्द द्वारा रचित पुस्तक के हिंदी अनुवाद 'वेद रहस्य' को पढ़ने से मुझे ज्ञात हुआ कि वेदों और शास्त्रों में उपयुक्त शब्दावली लैटिन और ग्रीक शब्दावली से बहुत अधिक मेल खाती है. इससे मेरा निष्कर्ष यह है कि इन ग्रंथों की शब्दावली लैटिन, ग्रीक आदि की देवानागारीकृत शब्दावली ही है  इसकी पुष्टि तब हुई जब मैंने अनेक अंशों के अनुवाद इस शब्दावली के आधार पर किये.

    विदेशी भाषाओं के आश्रय का तीसरा कारण यह है कि भारत पर अनेक आक्रमण हुए है, अनेक जातियां यहाँ आकर बसी हैं, और इस देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर रखा गया है. इन कारणों से यहाँ की संस्कृति, ग्रंथों के अनुवाद्फ़ आदि अशुद्ध किये जाने की संभावना बहुत अधिक है, जो वेदों, शास्त्रों के हिंदी अनुवादों से स्पष्ट भी है.

    इन सभी कारणों से प्राचीन ग्रंथों के नए सिरे से अनुवाद करने की अतीव आवश्यकता है यदि हम अपना वास्तविक इतिहास जानना चाहें. इस संलेख के माध्यम से भारत के वास्तविक इतिहास को जानने का प्रयास किया जा रहा है. यह एक विशाल और जटिल कार्य है, संदेह और संशय होने स्वाभाविक हैं, औउर वास्तविक के उजागर होने के लिए धैर्य की अतीव आवश्यकता है.   

    आर्य विवाद
    इस बहु-चर्चित विवाद के बारे में मैं अभी यही कहूँगा कि इसकी सच्चाई अभी सामने आयी ही नहीं है जो इस संलेख में प्रसंग आने पर स्पष्ट रूप से दर्शाई जायेगी. अभी इस बारे में कुछ कहना अप्रासंगिक होगा और विषय-वस्तु को क्रमानुसार आगे बढाने में बाधक होगा.

    वर्ण व्यवस्था
    वर्ण व्यवस्था का प्रथम उल्लेख मनुस्मृति में है जो मूलतः मानव जाति के समाजीकरण और समाज में कार्य विभाजन का मार्गदर्शक है. चाणक्य महोदय ने इसी व्यवस्ठ को संक्षेप में एक सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया. कोई भी सामाजिक सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू होने में समय लगता है. भारत चूंकि अधिकाँश समय गुलाम रहा इसलिए यह संभव है कि यह पूरी तरह कभी लागू हुआ ही न हो. शासक वर्ग में समाज को सदैव अपने हित में ही गठित करता रहा है और भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा है. इसलिए भारत के समाज में अत्यधिक विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं जिन सबका दायित्व वर्ण व्यवस्था पर थोपा जाता रहा.
    वर्ण व्यवस्था का केवल सूत्रीकरण ही किया गया जो एक बार ही हुआ किन्तु यह कभी पूरी तरह लागू न किया जाकर इसके स्थान पर सामजिक विकृतियाँ ही पनपायी गयीं जिनमें से अनेक आज तक प्रचलित हैं.


    ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि
    जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर तीन भाइयों ने भारत निर्माण कार्य आरम्भ किया और इसके लिए अपने-अपने कार्य क्षेत्र क्रमशः सृजन, अर्थ व्यवस्था, तथा रक्षा क्रमशः निर्धारित किये. इन्हीं तीनों के अनुयायी कृमशः ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय कहलाये. यदि यह कार्य विभाजन स्वेच्छा से लागू किया जाता रहता तो इसमें कोई दोष नहीं था, किन्तु स्वार्थी तत्वों ने इसे स्वेच्छाधारित न रखकर इसे जन्म आधारित बना दिया जिससे समाज में विकृतियाँ उत्पन्न हुईं.

    जो समाज गुलाम बनाकर रखे जाते हैं, उनमें कुछ भी प्राकृत रूप में विकसित नहीं होने दिया जाता और शासक वर्ग उनकी जीवन शैली और संस्कृति अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु निर्धारित करता है. भारत की सामजिक विक्रितीय यहाँ की लम्बी गुलामी की देनें हैं.  


  • वर्ण व्यवस्था की सच्चाई

     भारत में समाज को व्यवस्थित करने और कार्य विभाजन के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की गयी जिसका आरंभिक विवरण मनुस्मृति में तथा बाद में विष्णु गुप्त चाणक्य द्वारा अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में प्रकाशित किया गया. चाणक्य महोदय के शब्दों में -

    स्वधर्मो ब्राह्मनस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेती. क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च. वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वनिज्या च. शूद्रस्य द्विजाति शुश्रूषा वार्ता कारूकुशीलवकर्म च.
    इस ग्रन्थ का प्रचलित हिंदी अनुवाद (श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन) इस प्रकार है -
    ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-याजन, और दान देना तथा दान लेना है. क्षत्रिय का है पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, शस्त्रबल से जीविकोपार्जन करना और प्राणियों की रक्षा करना. वैश्य का धर्म पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि कार्य एवं पशुपालन और व्यापार करना है. इसी प्रकार शूद्र का अपना धर्म है कि वह ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करे; पशु-पालन तथा व्यापार करे; और शिल्प (कारीगरी), गायन, वादन एवं चारण, भात आदि का कार्य करे.
    इस अनुवाद की कपट-पूर्ण विकृतियों पर ध्यान दीजिये-
    1. मूल पाठ्य में दानं प्रथम तीन वर्णों का धर्म कहा गया है किन्तु हिंदी अनुवाद में केवल ब्राह्मण के लिए इसका अर्थ 'दान देना तथा दान लेना' किया गया है, शेष दो वर्णों के लिए इसका अर्थ केवल दान देना है. 
    2. मूल संस्कृत में शूद्र धर्म द्विजाति सुश्रुषा है जबकि हिंदी अनुवाद में इसके लिए तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है.
    3. खेती, पशुपालन तथा व्यापार उसके लिए हिंदी अर्थों में बिना सन्दर्भ के ठूंसे गए हैं. 
    इनसे स्पष्ट होता है कि अनुवादक मूल मंतव्य के अतिरिक्त अपना मत भी अनुवाद के माध्यम से अनधिकृत रूप से व्यक्त कर रहे हैं जो ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकारी तथा शूद्रों को वैश्य धर्म में सम्मिलित करता है. शास्त्रों के साथ आधुनिक ब्राह्मंवादियों ने इसी प्रकार के छल कर उन्हें विकृत करके ही जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस प्रकार के छलों से ही भारत के इतिहास को विकृत किया गया है जिसका संशोधन किया जाना आवश्यक है. आइये हम इस विषय पर तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से विचार करते हुए उक्त वर्ण व्यवस्था का सही अनुवाद करें.

    सबसे पहले ब्राह्मण के बारे में - ब्रह्मा रचनाकार थे और उनके अनुयायी ब्राह्मण कहलाये जो रचनाकार ही थे. हिंदी शब्दावली के अनुसार अध्ययन और अध्यापन का अर्थ पढ़ना पढ़ाना है जो रचनात्मक कार्य नहीं हैं तो ये ब्राह्मण धर्म कैसे हो सकते हैं. इसी प्रकार दान देना तथा लेना किसी प्रकार भी रचनात्मक कार्य नहीं कहे जा सकते और ब्राह्मण धर्म नहीं हो सकते. यज्ञ का वर्तमान प्रचलित अर्थ अग्नि में घी एवं अन्य सामग्री जलाना लिया जाता है. ऐसा करने से यदि वातावरण शुद्ध होता है तो श्होद्र ही इससे वंचित क्यों किये गए हैं जबकि उन्हें तो वातावरण शुद्धि की सर्वाधिक आवशकता रहती है. इस सबसे यही प्रतीत होता है कि चाणक्य महोदय के शब्दों को समझाने के कोई प्रयास न किये जाकर अनुवादक ने अपने मत थोपे हैं. आइये, सही अनुवाद पाने के प्रयास करें. किन्तु पहले कुछ शब्दों की व्याख्या करें.

    अध्ययन-अध्यापन
    लैटिन भाषा का शब्द है aedis जिसका समतुल्य हिंदी शब्द 'भवन' हैं. लैटिन भाषा शब्दों में अंत के भागों -is, -us तथा ग्रीक भाषा के -os का उच्चारण नहीं होता. भवन बनाना उच्च कोटि का रचनात्मक कार्य है अतः यह ब्राह्मण का निर्धारित दर्म हो सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय शब्द 'अध्य' का अर्थ 'भवन' है, जिसके आधार पर अध्ययन-अध्यापन का अर्थ 'भवनों में रहना और उनका निर्माण करना' होता है.  यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि उस समय बहुत अल्प जन समुदाय ही भवनों में रहते थे, अधिकाँश जन-समुदाय जंगलों में भ्रमणकारी जीवन व्यतीत करते थे. इस दृष्टि से भवनों में रहने का विशेष उल्लेख किया गया है.

    यजन-याजन 
    दक्षिण भारतीय परम्परा में आज भी हिंदी के 'ज्ञ' को 'ज्न' उच्चारित किया जाता है, अतः यजन-याजन का हिंदी रूपांतर 'यज्ञ-याज्ञ' है. यज्ञ के बारे में बहुत भारी भ्रान्ति प्रचलित है. यज्ञ शब्द 'योग' से बना है जो जिसका अर्थ मिश्रित करना अथवा एक साथ मिलाना होता है. प्राचीन काल में अंग्रेजी भाषा का एक शब्द 'yogh था जो दो अक्षरों के योग के लिए उपयोग में लिया जाता था जो योग के उपर्युक्त अर्थ को पुष्ट करता है.
    व्यक्तियों का समाज बनने के लिए बस्तियों - ग्राम और नगर - का बनाना आवश्यक होता है. उस समय समाज बनाना मानवता  विकास के लिए महत्वपूर्ण था जो केवल सभ्य जन-समुदाय ही करते थे. इस आधार पर यज्ञ-याज्ञ का अर्थ 'समाज में रहना तथा समाज बनाना' अर्थात 'बस्ती में रहना तथा बस्ती बनाना' सिद्ध होता है.

    दान
    आधुनिक तथाकथित ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दान शब्द का दुरूपयोग बहुत अधिक किया है. हिंदी भाषा परिवार की भाषा हेब्रू में दान शब्द का अर्थ 'न्याय करना' है.जो एक अति महत्वपूर्ण धर्म होने की संभावना भी रखता है. अतः यही दान शब्द का सही अर्थ है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वश्य वर्णों द्वारा अन्यों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना निर्धारित करता है.

    प्रतिग्रह
    लैटिन भाषा के दो शब्द 'granum ' तथा 'graes' हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'बीज' तथा 'घास' हैं जो परंपरागत रूप में भोजन के रूप में उपयोग में लिए जाते रहे हैं. अतः प्रतिग्रह का अर्थ 'खाद्यान्न और शाक-भाजी का उपयोग करते हुए भोजन बनाना' सिद्ध होता है, जो लगभग ५० वर्ष पहले तक अनेक ब्राह्मणों का निर्धारित कार्य था.

    कृषि
    वैश्यों का एक धर्म कृषि कहा गया है, किन्तु वैश्य परम्परागत रूप में कभी खेती में लिप्त नहीं रहे और ना ही आज हैं. उनकी जीवनचर्या भी खेती के योग्य नहीं रही है. अतः कृषि शब्द का अर्थ खेती नहीं है. लैटिन भाषा में कृषि के निकटस्थ शब्द cratia (उच्चारण क्रशिया) तथा crucea पाए जाते हैं जिनमें से प्रथम का अर्थ 'शासन करना' तथा दूसरे का अर्थ 'क्रोस' है जो उस समय अपराधियों को दंड देने में उपयोग किया जाता था. शासन करना तथा दंड देना सम्बंधित कार्य हैं. चाणक्य महोदय के ग्रन्थ अर्थशास्त्र लिखे जाते समय गुप्त वंश का शासन चन्द्रगुप्त मोर्य के सम्राट बनने से आरम्भ हो चुका था. अतः इस ग्रन्थ में शासन करना वैश्यों का निर्धारित धर्म कहा गया है.

    पाशुपाल्य
    पशुपालन खेती से निकट सम्बन्ध रखता है. इसलिए उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पशुपालन भी वैश्यों का धर्म सिद्ध नहीं होता. लैटिन भाषा में passus शब्द का उच्चारण पाशु तथा अर्थ 'यात्रा' है जो वैश्यों के परम्परागत धर्म वाणिज्य से गहन सम्बन्ध रखता है. अतः पाशुपाल्य शब्द का अर्थ 'यात्रा करना' सिद्ध होता है न कि पशुपालन.

    द्विजाति शुश्रूषा
    प्राचीन काल में सुश्रुत नामक महत्वपूर्ण चिकित्सक रहे हैं जिनके चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ आज भी प्रचलित हैं. अतः शुश्रूषा शब्द का अर्थ सेवा न होकर चिकित्सा सिद्ध होता है. इसी आधार पर द्विज शब्द का अर्थ रोगी सिद्ध होता है. रोग की चिकित्सा व्यक्ति को दूसरा जन्म देने के समान होती है क्योंकि उस समय रोग अनेक लोगों की जान ले लेते थे.

    कारुकुशीलवकर्म 
    लैटिन शब्द carruca का अर्थ 'हल' अथवा 'हल चलाना' है जो खेती कार्य का प्रतीक हैं. लैटिन में ही carnis तथा caro शब्दों के अर्थ 'मां'स' हैं जिसे चर्म के भाव में भी लिया जाता है. अतः उपरोक्त शब्द समूह में कारू दो भ्हवों में उपयुक्त किया गया है - एक कुशील के साथ तथा दूसरा कर्म के साथ. इस आधार पर पूरे शब्द समूह का अर्थ 'खेती करना तथा चर्म संबंधी कार्य करना' सिद्ध होता है. चर्म कार्य शूद्रों का परम्परागत कार्य रहा है.

    इन सब्द व्याख्याओं के आधार पर चाणक्य महोदय के उक्त सूत्र वर्ण धर्म इस प्रकार निर्धारित करता है -

    ब्राह्मण का अपना धर्म भवन में रहना तथा भवन बनाना, बस्ती (समाज) में रहना तथा बस्ती बसाना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना तथा भोजन पकाना है. क्षत्रिय धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, तथा शास्त्रों के उपयोग से जन-धन की रक्षा करते हुए जीविकोपार्जन करना है. वैश्य धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, शासन करना, यात्राएं करना तथा व्यापार करना है. शूद्र धर्म रोगियों की चिकित्सा करना, सन्देश वाहक के रूप में कार्य करना, खेती करना तथा चमड़े का कार्य करना है. 

    इस आलेख के अंत में 'ब्राह्मण' का परिचय भी प्रासंगिक है. उक्त वर्ण धर्म निर्धारण यह सिद्ध करता है ब्राह्मण धर्म मुख्यतः भोजन, भवन और बस्तियों का निर्माण करना है जो सभी रचनात्मक कार्य हैं और ब्रह्मा की रचनात्मकता से सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिक युग में जो समुदाय स्वयं को ब्राह्मण कह रहे हैं, उन्होंने भोजन पकाने के अतिरिक्त कोई अन्य निर्धारित कार्य कभी नहीं किया है. अतः ये ब्राह्मण कभी नहीं रहे हैं और न आज हैं. ग्रामीण अंचलों में इन्हें वामन कहा जाता है. दूसरी ओर कृष्ण ने छल-कपट के लिए वामन का रूप धारण किया था. यह सिद्ध करता है कि आधुनिक समुदाय जो स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, वस्तुतः वे 'वामन' हैं.   .     



  • शब्दार्थ बदलकर किस तरह शास्त्रों के अर्थ बदले गए हैं, इसके लिए दो उदाहरण दिए जा रहे हैं -
    १. एक शब्द है 'तृप्ति' जिसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार 'संतुष्टि' है. किन्तु वेदों और शास्त्रों में इस शब्द का अभिप्राय एकदम विपरीत है. यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'turpitude ' का देवनागरी रूप है जिसका अर्थ 'अभाव' है. इस प्रकार वेद और शास्त्रों में आये इस शब्द का अर्थ 'संतुष्टि' लेने से आशय एकदम विपरीत हो जायेगा.
    'तृप्ति' शब्द का ही द्रविड़ रूप 'तिरुपति' है जिसे दक्षिण भारत के एक देवता के नाम के लिए उपयोग किया जाता है जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग तिरुपति नामक स्थान पर जाते हैं. मेरे एक सहकर्मी आन्ध्र प्रदेश के थे - श्री इ. एन. राव, वे कहा करते थे कि तिरुपति के बारे में एक किंवदंती प्रसिद्द है कि वहां कोई श्रद्धालु चाहे जितना भी धन लेकर जाये, वह वहां से खाली हाथ ही वापिस आता है. सभवतः यह किंवदंती सच न हो, किन्तु इसके प्रसिद्द होने का कुछ तो कारण होगा ही. मेरे विचार में यह किंवदंती तिरुपति शब्द का वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए कभी प्रचलित की गयी होगी. जब जन-समुदाय भावावेश में सच्चाई से दूर भागता है तो उसे सत्य से परिचित कराने के लिए ऐसे मार्ग अपनाए जाते रहे हैं. इस किंवदंती से भी तिरुपति का अर्थ 'अभाव' सिद्ध होता है.
    २. एक शब्द है 'शुभ' जो वेदों, शास्त्रों तथा आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में भी प्रचलित है. आधुनिक संस्कृत एवं हिंदी में इसका अर्थ है 'अच्छा' अथवा 'जिसकी उपस्थिति मात्र लाभकर हो' जबकि ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जिसकी उपस्थिति लाभ या हानिकर हो. वस्तु की उपस्थिति का प्रभाव ही लाभकर या हानिकर हो सकता है.
    वेदों तथा शास्त्रों में यह शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'sophia ' से लिया गया है जिसका व्यापक अर्थ है - भाषा के उपयोग संबंधी कार्य जैसे लेखन, प्रवचन, शिक्षण, अध्ययन, चिंतन, आदि. फिलोसोफी शब्द भी इसी से बना है. अरबी और हिन्दुस्तानी में इसका समतुल्य शब्द सूफी है जिसका अर्थ भी वेदों और शास्त्रों के मूल मंतव्य से मेल खाता है. अतः वेदों एवं शास्त्रों में इसका अर्थ आधुनिक संस्कृत के अनुसार लेने से भाव में विकृति उत्पन्न होना स्वाभाविक है.

    इस प्रकार शब्दार्थ परिवर्तन कर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों को विकृत किया गया है. यहाँ आश्चर्य यह है कि सभी मानते और जानते हैं कि वेदों और शास्त्रों की भाषा आधुनिक संस्कृत से भिन्न है तथापि जब इनके अनुवाद करते हैं तो आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही करते हैं. यह या तो बुद्धिहीनता है अथवा जानबूझकर वेदों और शास्त्रों के मंतव्यों में विकृति उत्पन्न करना है. अभी तक मैंने कोई ऐसा अनुवाद नहीं देखा है जो आधुनिक संस्कृत के उपयोग पर आधारित न हो. इसलिए अब तक किये गए सभी अनुवादों को टाक पर रखकर इस कार्य को नए सिरे से की जाने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए मैं एक शब्दकोष भी तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग ५००० शब्दों के अर्थ संकलित भी किये जा चुके हैं.

    इन कारणों से इस संलेख में सन्दर्भ देना संभव नहीं है, तथापि कुछ स्थानों पर मूल लिपि को सही ढंग से अनुवाद करके नए अर्थ दर्शाए जायेंगे.


  • ऐतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग दो


    इस संलेख में प्रकाशित भारत के इतिहास में सन्दर्भ प्रदान करने की सबसे बड़ी क्लिष्टता यह है कि यह इतिहास किसी ग्रन्थ से यथावत न लिया जाकर अनेक ग्रंथों के मेरे अनुवादों के कणों को संगृहीत करके बनाया गया है जिसमें बौद्धिक तर्कों का भी समावेश है. यदि इतिहास किसी ग्रन्थ में सीधे-सीधे समावेशित होता तो इस सम्बन्ध में अभी तक फ़ैली भ्रांतियां उत्पन्न ही नहीं होतीं और मुझे यह इतिहास नए सिरे से लिखने की आवश्यकता ही नहीं होती. किसी ग्रन्थ में प्राचीन इतिहास को समावेशित करने में जटिलताएं थीं जिनका अवलोकन यहाँ किया जा रहा है.


    भारत राष्ट्र के विकास के बारे में सबसे पहले वेड लिखे गए जो आरम्भ में किसी अन्य लिपि में लिखे गए होंगे किन्तु बाद में इन्हें देवनागरी में लिपिबद्ध किया गया. इनकी शब्दावली लातिन तथा ग्रीक भाषाओं की शब्दावली है क्योंकि उस समय तक ये भाषाएँ ही विकसित हुई थीं. यह भाषा आधुनिक संस्कृत से एकदम भिन्न है और इसके आधार पर वेदों का अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण तथा अतार्किक है. इस तथ्य को सभी मानते हैं तथापि सभी अनुवाद आधुनिक संस्कृत के आधार पर ही किये गए  है जो वेदों के बारे में भ्रांत धारणाएं उत्पन्न करते हैं.वेदों में पूर्णतः तत्कालीन वैज्ञानिक ज्ञान निहित है किन्तु काल अंतराल के कारण इनके अनुवाद करनी अति क्लिष्ट है.

    यवनों एवं अन्य जंगली जातियों के भारत में आने और उन के द्वारा देवों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों में धर्म प्रचार के माध्यम से बाधा उत्पन्न किये जाने के अंतर्गत उन्होंने वेदों तथा अन्य ग्रन्थों के गलत अनुवाद प्रसारित करने आरम्भ किये  जिनमें धर्म और अध्यात्म प्रचार पर बल दिया गया जो पूरी तरह देवों तथा वेदों के मंतव्य से भिन्न था. इस उद्देश्य से इन जंगली जातियों ने आधुनिक संस्कृत विकसित की जिसमें शब्दार्थ मूल शब्दार्थ से बहुत भिन्न हैं. शास्त्रों के प्रचलित अनुवाद इसी आधुनिक संस्कृत शब्दार्थों पर आधारित होने के कारण दोषपूर्ण हैं.

    ऐसी स्थिति में यदि देव उसी प्रकार अन्य ग्रन्थ भी लिखते तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता. अतः देवों ने एक नयी लेखन शैली का विकास किया जिसे शास्त्रीय शैली कहा जा सकता है. इस शैली में शब्दावली को इस प्रकार बदला जाता है कि उसमें वास्तविक अर्थ तो छिपा रहे किन्तु प्रतीत अर्थ धर्म एवं अध्यात्मा परक लगे. इस आशय के संकेत प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में गूढ़ रूप में दे दिए गए ताकि गंभीर पाठक इस शैली में लिखे ग्रंथों के सही अनुवाद पा सकें. साथ ही अध्यात्मवादी भी इन ग्रंथों से प्रसन्न रहें और इन्हें नष्ट करने के स्थान पर इन्हें सुरक्षित रखें. इस कारण से अधकांश ग्रंथों की मूल भाषा आज तक सुरक्षित है किन्तु उनके उलटे-सीधे अनुवाद प्रचलित हैं जिसके कारण इन ग्रंथों में अतार्किक वर्णन प्रतीत होते हैं.

    इस शास्त्रीय शैली में पुराण लिखे गए जिनमें पुरु वंश एवं इसके प्रमुख व्यक्तियों के इतिहास निहित हैं. किन्तु इस इतिहास को आधुनिक संस्कृत के आधार पर किये गए अनुवादों में प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसके कारण इस इतिहास के सीधे सन्दर्भ देना संभव नहीं है. मूल भाषा में सन्दर्भ प्रदान करने से उसके अनुवादों की जटिलता सामने आती है. इसलिए इस इतिहास को कण-कण करके बनाया गया है, शास्त्रीय शैली में सबसे बाद में लिखा गया ग्रन्थ भाव प्रकाश है जिसमें आयुर्वेद के अतिरिक्त इतिहास का भी समावेश है.
     
  • एतिहासिक सन्दर्भों की क्लिष्टताएं - भाग एक

    विश्व-संजोग पर लिखे जा रहे इस इतिहास के आलेखों पर अनेक विद्वानों ने टिप्पड़ियों द्वारा सन्दर्भ गिये जाने की मांग की है जो सर्वथा उचित है. किसी भी परम्परा को तोड़ने अथवा सुधारने के लिए नयी स्थापनाओं को प्रमाणित किया जाना आवश्यक होता है, जो दो प्रकार से किया जा सकता है - नयी स्थापनाओं के साक्ष्य प्रदान किये जा सकते हैं, अथवा परम्परागत स्थापना की विशंगताओं को प्रकाशित करते हुए उन्हें दोषपूर्ण सिद्धकर नयी निर्दोष एवं तर्कपूर्ण स्थापनाएं दी जा सकती हैं. प्रथम भौतिक, सीधा एवं परम्परागत तरीका है जिसकी अपेक्षा की जाती है. दूसरा  बौद्धिक, तिर्यक एवं अपराम्परागत तरीका है जिसे अल्प बौद्धिक जन ही स्वीकार करते हैं. किन्तु प्रथम तरीके में क्लिष्टताएं होने पर दूसरा तरीका अपनाया जा सकता है जो मैं अपना रहा हूँ. अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए मैं सर्वप्रथम प्रचलित इतिहास की उन विशंगताओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनके कारण मुझे भारत के प्राचीन इतिहास को नए सिरे लिखना पड़ रहा  है.


    महाभारत भारत का प्राचीन इतिहास है, इससे सभी विद्वान् सहमत होंगे. इसके प्रचलित स्वरुप को यदि तार्किक दृष्टि से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि जो घटनाएं बुद्धि और तर्क दोनों दृष्टियों पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें दिव्यता के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत किया गया है जिससे कि उनपर बौद्धिक बहस न हो. मेरी दृष्टि में यह इस इतिहास लेखाकारों के एक छल है और हमारे द्वारा इसे स्वीकार किया जाना हमारी बुद्धिहीनता का परिचायक. अतः मेरा विद्वान् जनों से आग्रह है कि वे प्रचलित इतिहास को केवल दिव्यता के बहाने स्वयं-सिद्ध न स्वीकारें और उसे तार्किक दृष्टि से परखें.

    इस विषय में मेरा प्रमुख मंतव्य कृष्ण के चरित्र से है जिसमें उसके द्वारा १२ वर्ष की अवस्था में महाबली कंस  की ह्त्या किया जाना, गोवर्धन पर्वत को सर पर उठाया जाना, ह्त्या हेतु जरासंध के शरीर को चीरा जाना, रक्तबीज की परिकल्पना, अपना विश्व-रूप प्रदर्शित करना, विवाहित राधा को मोह-जाल में फंसाकर उसका यौन-शोषण कर उसे त्यागा जाना तथापि भारतीय परम्परागत एवं संकीर्ण समाज में अविवाहित राधा-कृष्ण युगल को पूजनीय स्वीकार किया जाना, स्वयं को ईश्वर घोषित करते रहना, आदि आदि अनेक ऐसे घटनाक्रम हैं जो केवल दिव्यता के आधार पर स्वीकार किये जा रहे हैं और बुद्धि को परे धकेला जा रहा है. इसके साथ-साथ वे राम को भी दिव्य विभूति स्वीकारते हैं जिनके चरित्र कहीं भी कोई इस प्रकार का दंभ अथवा भोंडा प्रदर्शन नहीं है. इस प्रकार दोनों में व्यासीय अंतराल है और कृष्ण को छलिया सिद्ध करता है जो संज्ञा उसे प्रदान भी की जाती रही है, तथापि उसके सब दोष और छल-कपट उसकी दिव्यता के भय से स्वीकारे जा रहे हैं. इस पर भी कोई भी अनुयायी अपनी पुत्री अथवा अपनी वधु को किसी पर-पुरुष के साथ प्रेमालाप में लिप्त नहीं देखना चाहता जबकि यही समाज आज भी अनेकानेक व्यक्तियों को दिव्य विभूति स्वीकार कर रहा है और उनकी वन्दना की जा रही है. क्या कोई अनुयायी किसी ऐसी दिव्य विभूति को अपनी कन्या अथवा वधु प्रेमालाप हेतु प्रस्तुत करेगा?

    अब आते हैं हम पांडवों के प्रचलित चरित्र पर - यह सभी स्वीकारते हैं कि वे अज्ञात पिताओंकी संतानें थे किन्तु कुंती की दिव्य शक्तियों के आवरण में उसके व्याभिचार को सहज रूप में स्वीकार लेते हैं. तथापि ऐसे अनुयायी अपनी तुच्छ पारिवारिक संपदा में किसी अवैधसंतान को हिस्सा देना नहीं स्वीकारते. जबकि कौरव-पांडव संग्राम केवल पारिवारिक संपदा का प्रश्न न होकर देश को कुशल शासन प्रदान करने का था. क्या अपने शौक के लिए अपनी वधु को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडवों से कुशल शासन व्यवस्था प्रदान करने की अपेक्षा की जा सकती थी? तो फिर दोष दुर्योधन को क्यों दिया जा रहा है? इस के बाद भी कृष्ण के पांडवों को शासन में भागीदारी प्रदान किये जाने  के नाम पर महाभारत विजय के बाद पांडवों को वनों में भटकने के लिए प्रेरित किया और उन्हें राज्य में हिस्सा नहीं दिया, जबकि अर्जुन कदापि युद्ध नहीं चाहता था और केवल कृष्ण द्वारा ही उसे विवश किया गया था.

    अब आते हैं हम मर्यादा-पुरुषोत्तम राम पर जो वस्तुतः महाभारत के आरभिक काल के नायक थे और महाभारत की मूल संस्कृत में अनेक स्थानों पर उनका उल्लेख है किन्तु इस ग्रन्थ के हिंदी अनुवादकों ने जहां भी राम शब्द आया है उसे बलराम, परशुराम, आदि शब्दों से विस्थापित कर दिया है. क्या यह एतिहासिक छल नहीं है? मेरा विद्वान् जनों से अनुरोध है कि वे स्वयं महाभारत में राम को पायें और इस छल को समझें. अनुवादकों के छल का स्पष्ट कारण है - वे राजनैतिक कारणों से कृष्ण को स्थापित करने के लिए राम को विलुप्त करने के लिए प्रतिबद्ध थे अन्यथा राम की तुलना में कृष्ण को महान दिव्य विभूति सिद्ध नहीं किया जा सकता था. वस्तुतः महाभारत का आरंभिक काल राम और कृष्ण का संघर्ष था.

    गंभीर शोध करने वाले सभी भाषाविद एक मत हैं कि रामायण ग्रन्थ महाभारत के बाद लिखा गया, जबकि रामायण काल महाभारत काल से लाखों वर्ष पूर्व का स्वीकार जाता है. रामायण में राम की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है जिसे विस्फोटक होने के कारण लुप्त किया गया है. संकेत के लिए इतना बता दें कि 'राम' शब्द का एक अर्थ 'बकरा' है, ईद में बकरे की बलि दी जाती है, और किसी निर्दोष व्यक्ति की की ह्त्या के लिए बलि के बकरे की उपमा चिर काल से दी जाती रही है. यह एक अति संवेदनशील और गंभीर प्रश्न है इसलिए इस पर चर्चा फिर कभी विस्तार से की जायेगी.

    महाभारत काल के बारे में भी भ्रांत धारणाएं प्रचलित हैं. महाभारत में ही गजेन्द्र और हेलिउकस चरित्र उपस्थित हैं. अरबी भाषा में विशेष उल्लेख के लिए 'अल' शब्द का प्रचलन रहा है. इस विषय में विस्तृत शोध करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि अल-गजेंदर ही अलगजेंदर अर्थात अलेक्संदर अर्थात सिकंदर है, तथा 'सेलयूकस' नाम 'हेलयूकस' में इसी प्रकार परिवर्तित है जैसे 'सिन्धु' से 'हिन्दू' बना हुआ है. अतः महाभारत काल वही काल है जो सिकंदर के भारत पर आक्रमण का काल है. इसे छिपाने का उद्देश्य केवल यही है कि सिकंदर को भारत पर आक्रमण के लिए कृष्ण द्वारा आमंत्रित किया गया था जो कृष्ण-अनुयायी स्वीकार नहीं करना चाहते. महाभारत स्थल के बारे में मेरी चर्चा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इंडोलोजी विभाग के विशेषज्ञों से हुई जिन्होंने कुरुक्षेत्र में युद्ध के संकेत खोजने के लिए व्यापक प्रयास किये हैं और उनके हाथ एक भी प्रमाण नहीं लगा है. कुरुक्षेत्र में ही महाभारत अभिलेखागार के विशेषग्य भी इसी मत के पाए गए. अतः मैंने तत्कालीन सरस्वती नदी के मार्ग और महाभारत स्थल खोजने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की व्यापक पदयात्राएं कीं और उन्हें पाया जिसका उल्लेख में फिर कभी इसी संलेख में करूंगा. इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रचलित इतिहास में महाभारत युद्ध का उल्लेख नहीं किया जाता जो एक विश्व-युद्ध था. अयोध्या के पास एक नदी की लगभग ५ किलोमीटर की लम्बाई को सरयू नदी कहा जाता है, शेष भाग के अन्य नाम हैं.

    इसी प्रकार की भ्रान्ति वैदिक काल के बारे में है जिसे लाखों वर्ष पूर्व से लेकर हजारों वर्ष पूर्व का बताया जाता है जबकि ३,००० वर्ष से  पूर्व पृथ्वी पर किसी भाषा अथवा मानव सभ्यता के विकसित होने के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. भारत में पाए गए सिक्कों के आधार पर भी यहाँ का इतिहास २५०० से अधिक पुराना नहीं पाया जाता. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कार्बन पद्यति जो काल निर्धारण के लिए उपयोग की जाती है, अभी तक प्रमाणित नहीं मानी जाती. आर्यों के बारे में भी इतिहास विशेषग्य अभी तक एकमत नहीं हो पाए हैं. देवों के बारे में भी भारतीय इतिहास में कोई अवधारणा नहीं है जबकि वेदों और शास्त्रों में उनके विस्तृत उल्लेख हैं.

    ऐसे ही अनेकानेक कारणों से भारत के इतिहास को विश्व स्तर पर भ्रांतियों का पिटारा माना जाता है जो हमारे लिए शर्मनाक है. मेरा निवेदन है कि इतिहास का अध्ययन भावुकता और आस्था को दूर करके ही यथार्थपरक किया जा सकता है.  
     
  • महेश्वर को जब उसके जन्म की कथा बताई गयी तो वे बहुत क्रोधित हुए. भरत एक शक्तिशाली योद्धा होने के साथ-साथ रूप परिवर्तन की कला में भी निपुण थे. उन्होंने अपने जीवन काल में विशेष प्रयोजनों के लिए अलग अलग समयों पर नौ प्रकार के रूप धारण किये थे. उनका सर्वाधिक भयानक रूप परशुराम का था जो उन्होंने अपने जन्म की कथा जानने के बाद धारण किया.इस कथा के कारण सबसे पहले उन्हें अपनी माता के चरित्र पर संदेह हुआ.

  • परशुराम के रूप में सबसे पहले भरत अपनी माताश्री के पास गए और उनसे उनके चरित्र संबंधी अपने संदेह व्यक्त किये और उन्हें भला-बुरा कहा. माता द्वारा स्पष्टीकरण दिए जाने पर उन्होंने अपनी माता के साथ किये गए छल का बदला लेने की ठानी. सबसे पहले उन्होंने उन सभी कुलों को नष्ट करने का संकल्प किया जो विदेशों से आकर भारत के पश्चिमी क्षेत्र में अपने राज्य स्थापित कर लोगों का शोषण कर रहे थे. इस अभियान में उन्होंने २१ कुलों को नष्ट किया.


    इसके बाद महेश्वर ने उस कुल की कन्या की खोज की जिसके सदस्य ने उनकी माताश्री के साथ विवाहपूर्व छल किया था और उन्हें मिली पृथा नामक एक कन्या. महेश्वर ने तब सूर्यावतार का वेश धारण किया और पृथा को उसी प्रकार छला जिस प्रकार दुष्यंत ने उनकी माता को छला था. परिणामस्वरूप पृथा गर्भवती हो गयी और महेश्वर का आक्रोश शांत हुआ.

    पृथा बाल्यकाल के इस यौनाभिचार से अत्यधिक प्रभावित हुई और वह सदैव यौनाभिचार की कामना करने लगी. स्त्री योनि के लिए एक शब्द कुंत है, सदैव अपनी कुंत के बारे में चिंतन करते रहने के कारण पृथा का गुणवाचक नाम कुंती हो गया. कुंती ने अविवाहित अवस्था में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका उसने लोकलाज के कारण परित्याग कर गंगा नदी में बहा दिया. कुंती का यही पुत्र महाभारत का सुप्रसिद्ध योद्धा और दानवीर कर्ण नाम से विख्यात हुआ.  
      
  • महेश्वर का जन्म

    महेश्वर के बड़े होने पर भी राम को युवराज बनाये जाने का कारण उनके जन्म की जटिलता थी जिसका उस समय तक महेश्वर को ज्ञान नहीं था.


    शकुंतला एक अति सुंदर युवती थी और उसके सौन्दर्य कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल रही थी. उधर, भरत के पश्चिमी भू-क्षेत्र पर अनेक बाहरी लोगों ने अपना अधिकार कर वहां के भोले-भले लोगों को अपने अधीन कर लिया था, जिनमें से एक राज्य का राजकुमार दुष्यंत था. दुष्यंत ने भी शकुंतला के बारे में सूना था और उसमें शकुंतला के यौवन भोग की इच्छा जागी. वह सूर्यवातार का वेश धारण कर शकुंतला के पास पहुंचा और उसे अपने मोहजाल में फंसा लिया. दोनों ऊर्जावान युवा थे इसलिए प्रेमालाप में शकुन्तला गर्भवती हो गयी. जब दुष्यंत को इसकी सूचना दी गयी तो उसने शकुंतला को पहचानने से इंकार  कर दिया. शकुंतला का जीवन बर्बादी के कगार पर आ पहुंचा.

    शकुंतला एक देवकुल कि कन्या थी और उसकी लाज तथा जीवन की रक्षा करना देव समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया. अतः गुरुजनों के आग्रह पर उस समय तक युवा और अविवाहित दशरथ ने शकुंतला से विवाह कर लिया. कुछ गोपनीयता के उद्देश्य से शकुंतला का नाम कौशल्या कर दिया गया. इस प्रकार दशरथ कि प्रथम पत्नी कौशल्या बनी. उचित समय आने पर कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महेश्वर रखा गया. कौशल्या के ही दूसरे पुत्र का नाम ब्रह्मा रखा गया जो सौम्य स्वभाव के कारण अत्यधिक लोकप्रिय बने. इसके विपरीत महेश्वर अति क्रोधी स्वभाव के थे और अपने शारीरिक बल का भरपूर प्रदर्शन तथा उपयोग करते थे.  .
      
  • भारत की प्रथम राज्य व्यवस्था

     जब देवों ने भारत भूमि को अपना घर बनाया था उस समय उनकी शासन करने की कोई अभिलाषा नहीं थी. वे बस यही चाहते थे कि यहाँ की समतल एवं उर्वरक भूमि मानवता के विकास के लिए हो क्योंकि इतनी विशाल समतल एवं सजल भूमि उन्हें अन्यत्र नहीं पाई थी. इसलिए उन्होंने बिना कोई राज्य-व्यवस्था स्थापित किये ही विकास कार्य आरम्भ कर दिए.

    उनके विकास से प्रभावित होकर अनेक जातियों ने इस भूमि पर अपना अधिकार चाह जिसके लिए सबसे पहले यहाँ यहूदी आये और इश्वर, धर्म आदि के नाम पर लोगों को पथ्भ्रिष्ट करने लगे ताकि उनपर शासन करना सरल हो. इसका देवों द्वारा विरोध किये जाने पर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिससे निपटने के लिए उन्हें अपनी राज्य-व्यवस्था कि अनिवार्यता अनुभव हुई और उन्होंने इसका निर्णय लिया.


    यहूदियों का प्रथम मुख्यालय दक्षिण भारत के मदुरै में था जिसका सीधा मुकाबला करने के लिए उन्होंने अपनी राज्य व्यवस्था के मुख्यालय के लिए दक्षिण भारत में ही एक नया नगर बसाया और उसे अपने प्रसिद्द विद्वान् अत्री के सम्मान में 'आत्रेयपाद' नाम दिया जिसे आज हैदराबाद कहा जाता है. हैदराबाद की चारमीनार नगर एवं राज्य कि स्थापना के अवसर पर बनायी गयी थी.

    ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के पिताश्री दशरथ को राज्याध्यक्ष बनाया गया. यहाँ यह भी ध्यान दिया जाये कि इन तीनों भाइयों को बाद के लिखे झूंठे ग्रन्थ 'वाल्मीकि रामायण' में राम, लक्ष्मण तथा भरत कहा गया है जो इनके गुणात्मक नाम थे. उस समय गुणात्मक नामों का प्रचालन था जो व्यक्तियों के कर्मों के अनुसार निर्धारित किये जाते थे और इनको वास्तविक नामों से अधिक महत्व दिया जाता था ताकि लोग सत्कर्म करने के लिए उत्साहित हों.

    राज्य व्यवस्था में ब्रह्मा को युवराज घोषित किया गया जिसपर भरत ने घोर आपत्ति की क्योंकि वे आयु में सबसे बड़े थे और युवराज बनाने के अधिकारी थे. इस आपत्ति के कारण राज्य को तीन भागों में बांटा गया तथा तीनों भाइयों को भागों का उप-राज्याध्यक्ष बनाया गया. तदनुसार ब्रह्मा को पूर्वी क्षेत्र का प्रबंध सौंपा गया और उनका मुख्यालय वर्तमान के म्यांमार क्षेत्र में, जिसका नाम अभी कुछ समय पहले तक ब्रह्मा ही था, प्रजा नामक स्थान में रखा गया जिसके कारण ब्रह्मा को प्रजापति भी कहा जाने लगा..

    मध्य क्षेत्र का कार्यभार विष्णु को दिया गया जिसका मुख्यालय वर्तमान के पश्चिमी बंगाल में स्थित विष्णुपुर को बनाया गया. उसी समय बनाये गए महल विष्णुपुर में आज भी विद्यमान हैं. पूर्वी क्षेत्र भरत के अधीन दिया गया जिसका मुख्यालय वर्तमान राजस्थान के राजगढ़ को बनाया गया. राजगढ़ का विशाल किला खँडहर अवस्था में आज भी विद्यमान है.
      
  • कांग्रेस संस्कृति : तब और अब

    भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय कांग्रेस की बागडोर महात्मा गाँधी के हाथ में थी जिन्होंने जनसाधारण को उस समय उपलब्ध वस्त्र केवल एक लंगोटी को अपनी वेशभूषा बनाया. इसके प्रभाव में पूरे देश में गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए एक जन-आन्दोलन छिड़ गया. जनसाधारण जैसा बनकर रहना उस समय के कांग्रेस नेताओं और पार्टी की संस्कृति थी.

    स्वतन्त्रता के बाद जवाहर लाल नेहरु के प्रथम प्रधान मंत्री बनाने पर उन्होंने जनसाधारण को तिलांजलि देते हुए उन शाही परिवारों को कांग्रेस में सम्मिलित कर लिया जो ब्रिटिश भारत में देश की स्वतंत्रता के विरोधी और अंग्रेजी शासन के पक्षधर थे. इन परिवारों के लोग स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों को बंदी बनवाने में अंग्रेजी शासकों का साथ देते थे. इस प्रकार के लोगों को कांग्रेस में लाकर नेहरु ने कांग्रेस की संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन आरम्भ कर दिया जिससे शासक और शासितों में वैसा ही अंतराल आने लगा जैसा की ब्रिटिश शासन में था.

    इस अंतराल का प्रत्यक्षीकरण अभी मेरे गाँव के निकट के गाँव ऊंचागांव में हुआ. यहाँ के एक बड़े जमींदार और भारत की स्वतन्त्रता के घोर विरोधी कुंवर सुरेन्द्र पाल सिंह को नेहरु ने सन १९५७ में कांग्रेस में आमंत्रित करके उन्हें संसदीय चुनाव में कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया था. इसके बाद वे केंद्रीय सरकार में अनेक बार मंत्री बने किन्तु उन्होंने खेत्र के विकास के लिए कोई प्रयास नहीं किये. इस कारण से यह खेत्र रेलवे आदि की सुख सुविधाओं से अभी तक वंचित है जब की कुंवर सुरेन्द्र पल सिंह एक बार रेल मंत्री भी रहे थे.

    अभी हाल में उनकी मृत्यु हुई और २० दिसम्बर को उनके मृत्यु-भोज में सम्मिलित होने के लिए लगभग १०,००० लोगों को आमंत्रित किया गया. इसकी व्यवस्था कुंवर साहेब के पुत्र ने की जो आज कांग्रेस के प्रदेश स्तरीय नेता हैं. आमंत्रित लोग दो प्रकार के थे - वर्त्तमान शासक तथा शासित. जहाँ शासक वर्ग के लोगों की सुख-सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया वहीं शासित वर्ग को भोजन पाने की भी समुचित व्यवस्था नहीं की गयी. शासक वर्ग के भोजन पान के लिए महल में विशेष व्यवस्था की गयी तथा उनकी कारें किले के अन्दर विशेष भोज-स्थल तक ले जाई गईं ताकि वे जनसाधारण के कोलाहल से किसी प्रकार का व्यवधान अनुभव न करें.

    दूसरी ओर लगभग १०,००० जनसाधारण लोगों के लिए एक पंडाल में भोजन पाने की खुली व्यवस्था की गयी जिसका आकार इतना ही था जैसा की शादी-विवाहों में ५०० लोगों के भोजन के लिए होता है. परिणामस्वरुप भूखे लोगों में भोजन पाने के लिए कड़ा संघर्ष होता रहा जिसमें अनेक लोगों के वस्त्र दूषित हो गए तथा अनेकों को भूखे ही लौटना पड़ा. परिस्थिति ऐसी थी जिसमें जिसको जो भी प्राप्त हो पाता उसी पर संतोष करता. किसी को पूड़ी नहीं तो किसी को सब्जी नहीं. किसी को मिष्टान्न नहीं तो किसी को क्खाली पलते भी नहीं मिल पायीं.

    इस घटनाक्रम में दो बातें सामने आती हैं - एक व्यवस्था करने की सक्षमता की तथा दूसरी व्यवस्थापकों की सामंतवादी प्रवृति की. जो व्यक्ति अपने निवास पर इतनी छोटी सी व्यवस्था कर पाने में सक्षम नहीं हैं, वे इस देश को कैसे चला पाएंगे. दूसरे  लोकतंत्र में शासक जन-सेवक कहे जाते हैं और होने भी चाहिए. इनका जनसाधारण से इस प्रकार दूरी बनाये रखना इस देश के जनतंत्र पर प्रश्नचिन्ह लगाता है.

    इसका तीसरा एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि लोगों को भोजन के लिए आमंत्रित करके उनके लिए समुचित व्यवस्था न करना आमंत्रित लोगों का घोर अपमान है. संभवतः व्यवस्थापकों का यह भी उद्देश्य हो ताकि क्षत्र के जनसाधारण कभी उनकी सामंतशाही के समक्ष सर न उठा सकें.
      
  • अकादेमी की महत्वपूर्ण देने

    अफलातून की अथेन्स में स्थापित अकादेमी की विश्व को सर्वाधिक विनाशकारी देनें ईश्वर, धर्म और अध्यात्म हैं. ईश्वर के नाम से मनुष्यों को भयभीत किया जाता है, धर्म उनकी बुद्धि को सुषुप्त  करता है तथा अध्यात्म उन्हें एक अनंत परिनामविहीन यात्रा पर बने रहने को उत्साहित करता है. इन के माद्यम से चतुर लोग जान-साधारण पर सरलता से अपना शासन बनाए रखते हैं. ये सभी पूरी तरह सारहीन हैं तथा मनुष्यों पर केवल मनोवैज्ञानिक प्रभाव बनाये रखती हैं. लम्बे समय तक चलते रहने से ये जान-मानस को एक विकृत संस्कृति के रूप में जकड लेती हैं जिससे इनसे पीछा छुड़ाना सरल नहीं होता. अकादेमी ने इन पर शोध किये और विश्व मानवता को गुलाम बनाने हेतु इनको विकसित किया.

    यहाँ यह स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि धर्म उस समय वेदों में प्रयोग किया गया लातिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ 'सोना' या 'सुलाना' है. अकादेमी में इस शब्द का अर्थ बदला और इसे मनुष्यों कि जीवन-चर्या में ईश्वर का प्रासंगिक बना दिया किन्तु इसका प्रभावी अर्थ वही रखा अर्थात ईश्वर के प्रसंग से धर्म द्वारा मनुष्यों कि बुद्धि को सुषुप्त करना. अफलातून तथा अरस्तु दोनों भारत निर्माण प्रक्रिया से प्रभावित थे और इसे अपने अधिकार में लेने को लालायित थे. वस्तुतः ईश्वर, धर्म तथा अध्यात्म जैसे झूठी मान्यताएं विकसित करने के पीछे उनका लक्ष्य भारत पर अधिकार करना था.


    इन शोध परिणामों को कार्यान्वित करने की दिशा में सर्व प्रथम यहूदी धर्म बनाया गया. इसके अनुनायियों का एक विशाल दल भारत में धर्म का प्रसार करने हेतु भेजा गया. यही दल अपने साथ गाय और गन्ना लेकर आया जिनको भारत भूमि पर विकसित किया गया. यह भारत में यदु वंश का आगमन था. यदु वंश का प्रथम मुख्यालय दक्षिण भारत के मदुरै में बनाया गया जिसका तत्कालीन नाम मथुरा था. वेबस्टर dictionary  के अनुसार आज के मथुरा का तत्कालीन नाम मूत्र था. इस दल के अनुयायी जान-समुदायों में साधुओं के रूप में स्थापित हो गए और ईश्वर, धर्म और अध्यात्म का प्रचार प्रसार करने लगे.
    जब ईश्वर का भय और धर्म का सुषुप्ति प्रभाव लोगों को भ्रमित करने लगा तो विकास कार्य में लगे देवों ने इनका विरोध करना आरम्भ किया जिससे देवों तथा यदुओं में संघर्ष कि स्थिति उत्पन्न हो गयी.

    अकादेमी ने उक्त संघर्ष में यदुओं कि सहायता के लिए आगे शोध किये और एक गर्भवती यदु स्त्री यशोदा के गर्भ से मूल भ्रूण निकालकर एक अन्य भ्रूण को बैंगनी वर्ण में रंग कर स्थापित कर दिया जिसके परिणाम-स्वरुप बैंगनी वर्ण का कृष्ण उत्पन्न हुआ. इस विशिष्ट रंग के शिशु को ईश्वर का अवतार घोषित कर जोरों से इसका प्रचार प्रसार किया गया. अकादेमी के विशेषज्ञों का एक दल आज के श्रीलंका द्वीप पर ठहरा और कृष्ण को छल-कपट तथा बाजीगरी कि कलाओं में प्रशिक्षित करने लगा. इन कलाओं के माध्यम से जन-साधारण में कृष्ण को ईश्वर के अवतार के रूप में सिद्ध करना सरल हो गया. गोवर्धन पर्वत का उठाना, शेष-नाग को वशीभूत करना आदि इन्ही बाजीगरी कलाओं के रूप थे जिनके माध्यम से जन-साधारण को कृष्ण कि अद्भुत क्षमताओं से प्रभावित किया गया.

    जैसे-जैसे कृष्ण बड़ा होता गया, उसका ईश्वरीय आतंक देवों के विरुद्ध विकराल रूप धारण करता गया जिसमें उसे जन-साधारण का समर्थन भी प्राप्त हो रहा था. छल-कपटों तथा बाजीगरी कलाओं से देवों को मन-गढ़ंत कहानियों के प्रचार-प्रसार से बदनाम किया जाने लगा तथा उनकी एक-एक करके हत्याएं की जाने लगीं जिनमे कंस, कीचक, जरासंध, रक्तबीज आदि प्रमुख थे.

    यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि धर्मावलम्बियों ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा केवल देव ग्रंथों के गलत अनुवाद करके उनमे ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, कृष्ण आदि विषयों को आरोपित किया. इस कार्य में शंकराचार्य ने विशेष भूमिका निभायी क्योंकि उस समूह में वही एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था. गलत अनुवादों को पुष्ट करने के लिए वेदों तथा शास्त्रों में प्रयुक्त लातिन एवं ग्रीक शब्दावली के अर्थ बदले गए और नए अर्थों को पुष्ट करने के लिए आधुनिक संस्कृत भाषा बनाई जिसका वेदों तथा शास्त्रों की भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं है. इन दोषपूर्ण अनुवादों के कारण ही जन-मानस में कृष्ण आज तक भगवन के रूप में स्थापित है.    
      
  • अफलातूनी कारनामा

    आपने पढ़ा कि एक्रोपोलिस पर फिलिप ने आक्रमण कर नगर वासियों को वहां से खदेड़ उस पर अधिकार कर लिया. कैसे हुआ यह सब संपन्न, इस बारे में यहाँ पढ़िए.



    उच्च कोटि के विद्वानों में सदैव यह कमी रही है कि उन्हें कोई भी सरलता से ठग सकता है. ऐसा ही हुआ सुकरात महोदय के साथ. अफलातून, जिसे अंग्रेजी में प्लेटो कहा जाता है, उनका शिष्य बन गया और नगर में अकादेमी नामक अपना स्कूल खोल लिया. इस स्कूल में खादिम तैयार किये जाते थे जो अफलातून के दिशा निर्देशों के अनुसार जान-समुदायों को भ्रमित करते थे. अकादेमी में ऐसे भ्रमों को जन्म देने और प्रसारित करने पर शोध किये जाते थे जिनके विवरण अगले अध्याय में दिए जायेंगे. 


    अफलातून  बहुत महत्वाकांक्षी था और विश्व पर अपना शासन स्थापित करना चाहता था जिसका आरम्भ उसने अथेन्स से किया. अथेन्स की  जनतांत्रिक व्यवस्था का वह घोर विरोधी था और शासन का अधिकार केवल संभ्रांत लोगों को देना चाहता था. यहाँ रहते हुए उसने नगर राज्य के बारे में जानकारियाँ एकत्र  कीं और उनके आधार पर नगर पर आक्रमण करा उसे अपने अधिकार में लेने की योजना बनाई. इसके लिए उसने दोर्रिस नगर के जंगली शासक फिलिप को नगर पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया. इस आमंत्रण और तदनुसार ईसापूर्व ३३८ में आक्रमण द्वारा अच्रोपोल्स को पराजित किया गया जिसके कारण वे भारत पहुंचे. अफलातून ने ही अपने गुरु सुकरात - अंग्रेजी नाम सोक्रेटेस, शास्त्रीय नाम शुक्राचार्य - को विषपान करवाया.

    अफलातून का एक विश्वसनीय शिष्य अरस्तु - अंग्रेजी नाम अरिस्तोतले - था. उधर फिलिप का एक पुत्र था जिसका नाम था सिकंदर - अंग्रेजी नाम अलेक्सान्दर. प्लेटो कि मृत्यु के बाद अरस्तु १३ वर्षीय सिकंदर का शिक्षक नियुक्त किया गया जिससे कि उसे बचपन से ही विश्व पर आक्रमण करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके. इसके लिए उसे बुद्धिहीन किन्तु परम शक्तिशाली बनाया गया. वह पूरी तरह अरस्तु पर निर्भर करता था तथा उसके आज्ञाकारी बना रहता था. अरस्तु तथा सिकंदर ने ईसापूर्व ३२६ में अपना विश्व अभियान आरम्भ किया और अफ्रीका तथा एशिया के देशों को पराजित करता हुआ ईसापूर्व ३२३ में भारत पर आक्रमण के लिए पहुंचा.


    इस आक्रमण से पूर्व भारत को निर्बल करने के लिए अफलातून तथा अरस्तु  ने अकादेमी के माध्यम से क्या क्या किया इसे पढ़िए अगले खंड में.



  • इस संलेख के कथानकों का काल यह मानकर निर्धारित किया गया है कि सिकंदर का भारत पर आक्रमण ३२३ ईसापूर्व में हुआ जिसे आज विश्व स्तर पर सत्य माना जाता है.

    अब से लगभग २,35० वर्ष पहले आज थाईलैंड कही जाने वाली भूमि पर एक परिवार था 'पुरु' नाम का. इस परिवार के तीन पुत्रों - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर ने आज के विएतनाम से अफगानिस्तान तक कि भूमि पर एक देश के निर्माण कि ठानी जो तब छुटपुट जंगली बस्तियों के अतिरिक्त जंगलों से भरी थी. हिमालय से सागर तक बहने वाली नदियाँ क्षेत्र को हरा-भरा रखने के लिए पर्याप्त जल प्रदान कर रही थीं और मानव बस्तियों के लिए अनुकूल जलवायु एवं पर्यावरण प्रदान कर रही थीं.

    पुरु परिवार शिक्षित था और अपने क्षेत्र में सभ्यता का विकास करने में लगा था. अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए लिखते रहना इसकी परंपरा थी. इसी आलेखन को बाद में वेदों का नाम दिया गया. भारत कि मुख्य भूमि पर आकर इस परिवार ने एक नयी भाषा का विकास आरम्भ किया जिसे 'देवनागरी' नाम दिया गया. उस समय भाषा तथा लिपि एक ही नाम से जानी जाती थीं. इसके बाद वेदों को भी इसी भाषा में लिखा गया. यहीं इस परिवार का सम्बन्ध स्थानीय व्यक्ति 'विश्वामित्र' से बना जो भ्रमणकारी थे और जनसेवा उनका व्रत था.


    तीनों भाइयों में सबसे बड़े महेश्वर थे जो एक विशालकाय योद्धा थे इसलिए क्षेत्र कि रक्षा का दायित्व इन्हें सोंपा गया. ब्रह्मा सृजन कार्य करते थे और मानवोपयोगी घर, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाने में लगे रहते थे. इनका स्वभाव अत्यधिक सौम्य था तथा लोगों के दुःख दर्दों को दूर करने का प्रयास करते थे जिसके कारन सर्वाधिक लोकप्रिय थे. स्वभाव में साम्यता के कारण विश्वामित्र इनके घनिष्ठ मित्र बन गए. विष्णु बुद्धिवादी थे और परिस्थिति तथा समयानुकूल योजना बनाने में लगे रहते थे. तीनो समाज को देने में लगे रहने के कारण लोग इन्हें 'देव' कहते थे.

    उधर आज इजराएल कहे जाने वाले क्षेत्र पर एक बाहरी जंगली जाति ने अपना शाषन स्थापित कर लिया था जिससे स्थानीय जनता दुखी थी जिसके आक्रोश का स्वर एक स्थानीय किशोर 'क्रिस्तोफेर' ने बुलंद करना आरम्भ किया. इस आक्रोश के दमन के लिए क्रिस्तोफेर पर अवैध संतान होने का आरोप लगाकर उसे क्रॉस पर यातना देते हुए मृत्यु दण्ड का प्रयास किया गया. हताहत किशोर के शरीर का औषधीय लेपन से गुप्त रूप में उपचार किया गया जिससे बालक कि जान बच गयी. इस किशोर की बड़ी बहिन मरियम उसे साथ लेकर गुप्त रूप से भारत आ गयी और देवों के साथ इस नव निर्माण कार्य में जुट गयी. गुप्त रहने के लिए भाई-बहिन नौका परिचालन का कार्य करते थे. क्रिस्तोफेर विष्णु के परम मित्र और सहयोगी बने.

    उसी समय ग्रीस के अथेन्स नगर में एक सभ्यता का विकास किया जा रहा था जिसके अंतर्गत नगर में विश्व की प्रथम जनतांत्रिक शाषन व्यवस्ता स्थापित की गयी. इस नगर राज्य को एक्रोपोलिस कहा जाता था जो चरों और से जंगली जातियों से घिरा था. मसदोनिया के जंगली शाषक फिलिप ने नगर राज्य पर आक्रमण किया और सभ्य नागरिकों को वहां से खदेड़ दिया. इनके शीर्ष विद्वान् सुकरात को विषपान करा मृत्युदंड दे दिया गया. नगर के लोग छिपकर भागते हुए भारत पहुंचे और देवों में मिल गए. इन्होने भारत में आगरा और आसपास के क्षेत्रों को विकसित किया. यहाँ ये लोग अक्रोपोल होने के कारण अग्रवाल कहलाये.

    इस प्रकार स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक बड़ा समूह भारत निर्माण के कार्य में जुट गया. नयी-नयी बस्तियां बनाने लगीं, भोजन के उत्पादन के लिए कृषि विकसित की जाने लगी.     
     
  • जनमानस : अंग्रेजी और भारतीय राज में

    अब स्वतंत्र भारत के लोकतान्त्रिक राज में लोग कहने लगे हैं कि इससे तो अंग्रेजी राज ही अच्छा था. क्यों पनप रही है यह धारणा जबकि तब से अब तक लोगों के जीवन स्टार में भरी सुधार आया है?

    विकास केवल भारत का ही नहीं हुआ है किन्तु यह प्रक्रिया विश्व स्तर पर हुई है. विकास एक सापेक्ष परिमाप है, तदनुसार यदि एक समाज दूसरे समाज से अधिक विकास करता है तो दूसरे समाज का पिछड़ना कहा जाएगा. इस दृष्टि से भारत विकास की दर में अनेक देशों से पिछड़ा है. अतः भारत का विकास या यहाँ के लोगों के जीवन स्तर में सुधार कोई अर्थ नहीं रखता. इसे एक प्राकृत प्रक्रिया के अंतर्गत स्वीकार लिया जाता है और इसका श्रेय किसी शाशन को नहीं दिया जा सकता. यहाँ तक की यह भी कहा जा सकता है की भारत के विकास की दर अपेक्षाकृत कम रही है जिसके लिए शाशन उत्तरदायी है.

    वास्तविक विकास देश के सकल घरेलु उत्पाद से नहीं मापा जा सकता. इसकी सही परिमाप देश के निर्धनतम व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार से किया जाना चाहिए. आज भी भारत का निर्धनतम व्यक्ति लगभग उसी स्तर पर जीवन यापन कर रहा है जिस पर वह अंग्रेजी राज में करता था. अतः उसके लिए देश की स्वतंत्रता तथा इसके सकल घरेलु उत्पाद में वृद्धि कोई अर्थ नहीं रखती. इस दृष्टि से स्वतंत्र भारत के शाषन को असफल ही कहा जायेगा.

    अंग्रेजी शाशन में देश की सम्पदा तथा लोगों का शाशकों द्वारा भरपूर शोषण किया जाता था. स्वतंत्रता के बाद इस शोषण में जो परिवर्तन आया है उसका प्रभाव केवल शाषक वर्ग पर पड़ा है जिसमे राजनेता तथा राज्यकर्मी सम्मिलित हैं. जनसाधारण तथा व्यवसायी वर्ग का शोषण उतना ही हो रहा है जितना अंग्रेजी राज में होता था. अतः इन वर्गों को शाषन परिवर्तन का कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ है. इस कारन से शाषन के प्रति इनकी भावना आज भी वैसी ही है जैसी अंग्रेजी शाषन के प्रति थी.

    भारत में अँगरेज़ शाषक शोषण चाहे जितना भी करते रहे हों, वे अपनी रानी के प्रति निष्ठावान थे और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि वे अनुशाषित थे. अंग्रेजी राज में जनसाधारण छल-कपट से दूर था. वह अपनी दयनीय निर्धन अवस्था में ईमानदारी के साथ परिश्रम करके अपना भरण-पोषण करता था. न्याय व्यवस्था ठीक थी, अपराधियों को दण्ड दिया जाता था और जनसाधारण सुरक्षित था.

    स्वतंत्र भारत का शाषक वर्ग न तो किसी के प्रति निष्ठावान है और न ही अनुशाषित. छल-कपट और भ्रष्टाचार उनकी रग-रग में बसा है. इसका प्रभाव व्यापक रूप से जनमानस पर पड़ा है. आज जनमानस भी अपने नेताओं से प्रेरणा पाता हुआ भृष्ट और बेईमान हो गया है. सार्वजनिक सम्पदा कि चोरी आम बात हो गयी है जिसका कोई प्रतिकार शाशको के पास नहीं है क्योंकि वे सब भी यही कर रहे हैं. सामाजिक अपराधों में वृद्धि हुई है जिससे जनसाधारण असुरक्षित हो गया है. न्याय व्यवस्था चरमरा गयी है तथा अपराधी वर्ग ने राजनैतिक सत्ता हथिया ली है जिससे जनसाधारण असुरक्षा कि भावना से पीड़ित है. जनमानस में इस परिवर्तन के कारण ही अंग्रेजी राज को भारतीय राज से अच्छा कहा जाने लगा है.
      
  • पृष्ठभूमि


    मध्य प्रदेश के एक विचारक से टिप्पड़ी के माध्यम से अचानक परिचय हुआ और उनके विचार पढ़ने का संयोग हुआ. अपना नाम तो वे सही नहीं प्रकाशित करते किन्तु स्वयं को असुविधाजनक कहते हैं. बहुत अच्छा लिखते हैं - भाषा और ज्ञान दोनों दृष्टियों से. विश्व-संजोग (इन्टरनेट) पर हिंदी में ऐसा अच्छा आलेखन और कहीं देखने को नहीं मिला. उन्हीं से प्रेरणा पाकर इस नए जोगालेख (ब्लॉग) का आरम्भ किया है ताकि हिंदीभाषियों तक अपने विचार पहुंचा सकूं.


    यों तो मैं अपने १२ अन्य जोगालेखों के माध्यम से विश्व समुदाय से सम्बद्ध हूँ तथापि हिंदी में जोगयेख का यह प्रथम प्रयास है, इसलिए कुछ भूलचूकें स्वाभाविक हैं जीसके लिए मैं पाठकों से अग्रिम क्षमा याचना करता हूँ. मुद्रण माध्यम से बहुत कुछ लिखा है और प्रकाशित किया है इसलिए हिंदी में लिखने में मुझे कोई कठिनाई नहीं है तथापि शब्दानुवाद के माध्यम से लिखने का यह प्रथम अवसर है.


    मूलतः भारत की वर्त्तमान स्थिति से मैं बहुत दुखी हूँ जिसे व्यक्त करने के लिए लिखता हूँ. अपने इंजीनियरिंग व्यवसाय को लगभग १६ वर्ष पूर्व त्याग कर भारत के इतिहास और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया था जिससे पाया की भारत को गुप्त वंश के शासन से पूर्व तथा पश्चात अनेक प्रकारों से ठगा जाता रहा है जिनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ठगी लोगों को ईश्वर के भय से आक्रांत कर अध्यात्म, धर्म और सम्प्रदायों के माध्यम से की गयी है.


    इन ठगियों का कारण केवल सामाजिक न होकर राजनैतिक रहा है. लोगों के मानस का पतन कर उन्हें बौद्धिक चिंतन से विमुख किया जाता रहा है और उनपर निरंकुश शाशन के माध्यम से उनका अमानवीय शोषण किया जाता रहा है. इसके परिणामस्वरूप देश पर चोर, ठग और डाकू अपना शाशन स्थापित करते चले आ रहे हैं.  यह स्थिति लगभग २,००० वर्षों से वर्त्तमान तक चल रही है और जनमानस अपना सर उठाने का साहस नहीं कर पा रहा है. छुटपुट व्यक्ति जो इस सतत दमन के विरुद्ध अपना स्वर उठाते रहें हैं उन्हें कुचला जाता रहा है.


    स्वतंत्रता के बाद देश पर लोकतंत्र थोपा गया जबकि जनमानस इसके लिए परिपक्व नहीं था और न ही स्वतंत्र भारत की सरकारों ने जनता को स्वास्थ, शिक्षा और न्याय प्रदान कर उसे लोकतंत्र हेतु सुयोग्य बनाने का कोई प्रयास किया है. अतः २,००० वर्षों से चली आ रही गुलामी आज भी जारी है. देश में सुयोग्यता और बोद्धिकता का कोई सम्मान न होने के कारण बुद्धिवादी या तो देश से पलायन कर जाते हैं या दमनचक्र में पीस दिए जाते हैं.


    इस सबसे दुखी होकर गाँव में रहता हूँ ताकि अनाचार से न्यूनतम सामना हो. यहीं से अपना अध्ययन और लेखन कार्य करता हूँ. जहां अवसर पाता हूँ अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करता हूँ. किन्तु इस संघर्ष में स्वयं को अकेला ही खड़ा पता हूँ  क्योंकि जनमानस अभी भी संघर्ष करने को तैयार नहीं है.

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