Jai Hind Jai Bharat

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Saturday, January 30, 2010

General Knowledge


: News Papers Name With                                                                                    

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Newspaper/Journal Founder/Editor
Bengal Gazette(1780) (India's first newspaper) J.K.Hikki
Kesari B.G.Tilak
Maharatta B.G.Tilak
Sudharak G.K.Gokhale
Amrita Bazar Patrika Sisir Kumar Ghosh and Motilal Ghosh
Vande Mataram Aurobindo Ghosh
Native Opinion V.N.Mandalik
Kavivachan Sudha Bhartendu Harishchandra
Rast Goftar (First newspaper in Gujarati) Dadabhai Naoroji
New India (Weekly) Bipin Chandra Pal
Statesman Robert Knight
Hindu Vir Raghavacharya and G.S.Aiyar
Sandhya B.B.Upadhyaya
Vichar Lahiri Krishnashastri Chiplunkar
Hindu Patriot Girish Chandra Ghosh (later Harish Chandra Mukherji)
Som Prakash Ishwar Chandra Vidyasagar
Yugantar Bhupendranath Datta and Barinder Kumar Ghosh
Bombay Chronicle Firoze Shah Mehta
Hindustan M.M.Malviya
Mooknayak B.R.Ambedkar
Comrade Mohammed Ali
Tahzib-ul-Akhlaq Sir Syyed Ahmed Khan
Al-Hilal Abdul Kalam Azad
Al-Balagh Abdul Kalam Azad
Independent Motilal Nehru
Punjabi Lala Lajpat Rai
New India (Daily) Annie Besant
Commonweal Annie Besant
Pratap Ganesh Shankar Vidyarthi
Essays in Indian Economics M.G.Ranade
Samvad Kaumudi (Bengali) Ram Mohan Roy
Mirat-ul-Akhbar Ram Mohan Roy (first Persian newspaper)
Indian Mirror Devendra Nath Tagore
Nav Jeevan M.K.Gandhi
Young India M.K.Gandhi
Harijan M.K.Gandhi
Prabudha Bharat Swami Vivekananda
Udbodhana Swami Vivekananda
Indian Socialist Shyamji Krishna Verma
Talwar (in Berlin) Birendra Nath Chattopadhyaya
Free Hindustan (in Vancouver) Tarak Nath Das
Hindustan Times K.M.Pannikar
Kranti Mirajkar, Joglekar, Ghate

Wednesday, January 27, 2010

ArabicNauha-basim al karbalai HUSAAIN HUSSAIN ya HUSSAIN moula

Monday, January 25, 2010

भारत के गणतंत्र की यात्रा

भारत के गणतंत्र की यात्रा

58 वर्ष पहले 21 तोपों की सलामी के बाद भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज को डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने फहरा कर 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र के ऐतिहासिक जन्‍म की घो‍षणा की। ब्रिटिश राज से छुटकारा पाने 894 दिन बाद हमारा देश स्‍वतंत्र राज्‍य बना। तब से हर वर्ष पूरे राष्‍ट्र में बड़े उत्‍साह और गर्व से यह दिन मनाया जाता है।

एक ब्रिटिश उप निवेश से एक सम्‍प्रभुतापूर्ण, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्‍ट्र के रूप में भारत का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना रही। यह लगभग 2 दशक पुरानी यात्रा थी जो 1930 में एक सपने के रूप में संकल्पित की गई और 1950 में इसे साकार किया गया। भारतीय गणतंत्र की इस यात्रा पर एक नजर डालने से हमारे आयोजन और भी अधिक सार्थक हो जाते हैं।

भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का लाहौर सत्र

गणतंत्र राष्‍ट्र के बीज 31 दिसंबर 1929 की मध्‍य रात्रि में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र में बोए गए थे। यह सत्र पंडित जवाहर लाल नेहरु की अध्‍यक्षता में आयोजि‍त किया गया था। उस बैठक में उपस्थित लोगों ने 26 जनवरी को "स्‍वतंत्रता दिवस" के रूप में अंकित करने की शपथ ली थी ताकि ब्रिटिश राज से पूर्ण स्‍वतंत्रता के सपने को साकार किया जा सके। लाहौर सत्र में नागरिक अवज्ञा आंदोलन का मार्ग प्रशस्‍त किया गया। यह निर्णय लिया गया कि 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्‍वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। पूरे भारत से अनेक भारतीय राजनैतिक दलों और भारतीय क्रांतिकारियों ने सम्‍मान और गर्व सहित इस दिन को मनाने के प्रति एकता दर्शाई।

भारतीय संविधान सभा की बैठकें

भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को की गई, जिसका गठन भारतीय नेताओं और ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के बीच हुई बातचीत के परिणाम स्‍वरूप किया गया था। इस सभा का उद्देश्‍य भारत को एक संविधान प्रदान करना था जो दीर्घ अवधि प्रयोजन पूरे करेगा और इसलिए प्रस्‍तावित संविधान के विभिन्‍न पक्षों पर गहराई से अनुसंधान करने के लिए अनेक समितियों की नियुक्ति की गई। सिफारिशों पर चर्चा, वादविवाद किया गया और भारतीय संविधान पर अंतिम रूप देने से पहले कई बार संशोधित किया गया तथा 3 वर्ष बाद 26 नवंबर 1949 को आधिकारिक रूप से अपनाया गया।

संविधान प्रभावी हुआ

जबकि भारत 15 अगस्‍त 1947 को एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बना, इसने स्‍वतंत्रता की सच्‍ची भावना का आनन्‍द 26 जनवरी 1950 को उठाया जब भारतीय संविधान प्रभावी हुआ। इस संविधान से भारत के नागरिकों को अपनी सरकार चुनकर स्‍वयं अपना शासन चलाने का अधिकार मिला। डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने गवर्नमेंट हाउस के दरबार हाल में भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ ली और इसके बाद राष्‍ट्रपति का काफिला 5 मील की दूरी पर स्थित इर्विन स्‍टेडियम पहुंचा जहां उन्‍होंने राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया।

तब से ही इस ऐतिहासिक दिवस, 26 जनवरी को पूरे देश में एक त्‍यौहार की तरह और राष्‍ट्रीय भावना के साथ मनाया जाता है। इस दिन का अपना अलग महत्‍व है जब भारतीय संविधान को अपनाया गया था। इस गणतंत्र दिवस पर महान भारतीय संविधान को पढ़कर देखें जो उदार लोकतंत्र का परिचायक है, जो इसके भण्‍डार में निहित है। 

क्‍या आप जानते हैं?

395 अनुच्‍छेदों और 8 अनुसूचियों के साथ भारतीय संविधान दुनिया में सबसे बड़ा लिखित संविधान है।

उद्धृत

डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद, स्‍वतंत्र भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति ने भारतीय गणतंत्र के जन्‍म के अवसर पर देश के नागरिकों का अपने विशेष संदेश में कहा:

"हमें स्‍वयं को आज के दिन एक शांतिपूर्ण किंतु एक ऐसे सपने को साकार करने के प्रति पुन: समर्पित करना चाहिए, जिसने हमारे राष्‍ट्र पिता और स्‍वतंत्रता संग्राम के अनेक नेताओं और सैनिकों को अपने देश में एक वर्गहीन, सहकारी, मुक्‍त और प्रसन्‍नचित्त समाज की स्‍थापना के सपने को साकार करने की प्रेरणा दी। हमें इसे दिन यह याद रखना चाहिए कि आज का दिन आनन्‍द मनाने की तुलना में समर्पण का दिन है – श्रमिकों और कामगारों परिश्रमियों और विचारकों को पूरी तरह से स्‍वतंत्र, प्रसन्‍न और सांस्‍कृतिक बनाने के भव्‍य कार्य के प्रति समर्पण करने का दिन है।"

सी. राजगोपालाचारी, महामहिम, महाराज्‍यपाल ने 26 जनवरी 1950 को ऑल इंडिया रेडियो के दिल्‍ली स्‍टेशन से प्रसारित एक वार्ता में कहा:

"अपने कार्यालय में जाने की संध्‍या पर गणतंत्र के उदघाटन के साथ मैं भारत के पुरुषों और महिलाओं को अपनी शुभकामनाएं और बधाई देता हूं जो अब से एक गणतंत्र के नागरिक है। मैं समाज के सभी वर्गों से मुझ पर बरसाए गए इस स्‍नेह के लिए हार्दिक धन्‍यवाद देता हूं, जिससे मुझे कार्यालय में अपने कर्त्तव्‍यों और परम्‍पराओं का निर्वाह करने की क्षमता मिली है, अन्‍यथा मैं इससे सर्वथा अपरिचित था।"

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Haider Ajaz
+919235786438

राष्‍ट्रीय दिवस

राष्‍ट्रीय दिवस

स्‍वतंत्रता दिवस

भारत का स्‍वतंत्रता दिवस, जिसे हर वर्ष 15 अगस्‍त को देश भर में हर्ष उल्‍लास के साथ मनाया जाता है, इसमें अनेक राष्‍ट्रीय दिवसों की खुशी शामिल है, क्‍योंकि यह प्रत्‍येक भारतीय को एक नई शुरूआत की याद दिलाता है, 200 वर्ष से अधिक समय तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल से छूट कर एक नए युग की शुरूआत हुई थी। वह 15 अगस्‍त 1947 का भाग्‍यशाली दिन था जब भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्‍वतंत्र घोषित किया गया और नियंत्रण की बाग डोर देश के नेताओं को सौंप दी गई। भारतीय द्वारा आजादी पाना उसका भाग्‍य था, क्‍योंकि स्‍वतंत्रता संघर्ष काफी लम्‍बे समय चला और यह एक थका देने वाला अनुभव था, जिसमें अनेक स्‍वतंत्रता सेनानियों ने अपने जीवन कुर्बान कर दिए। 

गणतंत्र दिवस

भारत देश एक गणतंत्र बना जब 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ और इस प्रकार यह सरकार के संसदीय रूप के साथ एक संप्रभुताशाली समाजवादी लोक‍तांत्रिक गणतंत्र के रूप में सामने आया भारतीय संविधान, जिसे देश की सरकार की रूपरेखा का प्रतिनिधित्‍व करने वाले पर्याप्‍त विचार विमर्श के बाद विधान मंडल द्वारा अपनाया गया तब से 26 जनवरी को भारत के गणतंत्र दिवस के रूप में भारी उत्‍साह के साथ मनाया जाता है और इसे राष्‍ट्रीय अवकाश घोषित किया जाता है। यह आयोजन हमें देश के सभी शहीदों के नि:स्‍वार्थ बलिदान की याद दिलाता है, जिन्‍होंने आजादी के संघर्ष में अपने जीवन खो दिए और विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध अनेक लड़ाइयां जीती।
 
 
गाँधी ज़यंती

2 अक्‍तूबर का दिन राष्‍ट्रपिता के प्रति समर्पित है। जब देश मोहन दास करम चन्‍द्र गांधी का जन्‍मदिन मनाता है तो वही राष्‍ट्र के बापू का जन्‍मदिन है। यह दिन शांति के दूत की इस कुर्बानी की याद सभी भारतीय नागरिकों को दिलाती है, ताकि वे स्‍वतंत्रता के इस उपहार को सच्‍चे अर्थों में ग्रहण कर सकें। अहिंसात्‍मक प्रतिरोध द्वारा ब्रिटिश उपनिवेशवाद कानून के प्रति कोई प्रतिरोधकता की भावना कभी असफल नहीं रही है जिसने देश में रहने वाले नागरिकों के बीच आपसी भाई चारे का जीवन जीने की भावना को प्रबल बनाया है। उन्‍होंने अस्‍पृश्‍य, जिन्‍हें वे 'हरिजन' कहते थे, के सामाजिक उत्‍थान के लिए गहन रूप से कार्य किया है और बाद में वे 'भारत छोड़ो आंदोलन' के नेता थे, जिसने भारत में ब्रिटिश प्रभुत्‍व के प्रति असंतोष का पहला संकेत दिया।


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Haider Ajaz
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गणतंत्र दिवस के आयोजन

गणतंत्र दिवस के आयोजन

हर वर्ष 26 जनवरी एक ऐसा दिन है जब प्रत्‍येक भारतीय के मन में देश भक्ति की लहर और मातृभूमि के प्रति अपार स्‍नेह भर उठता है। ऐसी अनेक महत्‍वपूर्ण स्‍मृतियां हैं जो इस दिन के साथ जुड़ी हुई है। यही वह दिन है जब जनवरी 1930 में लाहौर ने पंडित जवाहर लाल नेहरु ने तिरंगे को फहराया था और स्‍वतंत्र भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस की स्‍थापना की घोषणा की गई थी।

26 जनवरी 1950 वह दिन था जब भारतीय गणतंत्र और इसका संविधान प्रभावी हुए। यही वह दिन था जब 1965 में हिन्‍दी को भारत की राजभाषा घोषित किया गया।

आयोजन

इस अवसर के महत्‍व को दर्शाने के लिए हर वर्ष गणतंत्र दिवस पूरे देश में बड़े उत्‍साह के साथ मनाया जाता है, और राजधानी, नई दिल्‍ली में राष्‍ट्र‍पति भवन के समीप रायसीना पहाड़ी से राजपथ पर गुजरते हुए इंडिया गेट तक और बाद में ऐतिहासिक लाल किले तक शानदार परेड का आयोजन किया जाता है।

यह आयोजन भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इंडिया गेट पर अमर जवान ज्‍योति पर पुष्‍प अर्पित करने के साथ आरंभ होता है, जो उन सभी सैनिकों की स्‍मृति में है जिन्‍होंने देश के लिए अपने जीवन कुर्बान कर दिए। इसे शीघ्र बाद 21 तोपों की सलामी दी जाती है, राष्‍ट्रपति महोदय द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया जाता है और राष्‍ट्रीय गान होता है। इस प्रकार परेड आरंभ होती है।

महामहिम राष्‍ट्रपति के साथ एक उल्‍लेखनीय विदेशी राष्‍ट्र प्रमुख आते हैं, जिन्‍हें आयोजन के मुख्‍य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है।

राष्‍ट्रपति महोदय के सामने से खुली जीपों में वीर सैनिक गुजरते हैं। भारत के राष्‍ट्रपति, जो भारतीय सशस्‍त्र बल, के मुख्‍य कमांडर हैं, विशाल परेड की सलामी लेते हैं। भारतीय सेना द्वारा इसके नवीनतम हथियारों और बलों का प्रदर्शन किया जाता है जैसे टैंक, मिसाइल, राडार आदि।

इसके शीघ्र बाद राष्‍ट्रपति द्वारा सशस्‍त्र सेना के सैनिकों को बहादुरी के पुरस्‍कार और मेडल दिए जाते हैं जिन्‍होंने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व साहस दिखाया और ऐसे नागरिकों को भी सम्‍मानित किया जाता है जिन्‍होंने विभिन्‍न परिस्थितियों में वीरता के अलग-अलग कारनामे किए।

इसके बाद सशस्‍त्र सेना के हेलिकॉप्‍टर दर्शकों पर गुलाब की पंखुडियों की बारिश करते हुए फ्लाई पास्‍ट करते हैं।

सेना की परेड के बाद रंगारंग सांस्‍कृतिक परेड होती है। विभिन्‍न राज्‍यों से आई झांकियों के रूप में भारत की समृद्ध सांस्‍कृतिक विरासत को दर्शाया जाता है। प्रत्‍येक राज्‍य अपने अनोखे त्‍यौहारों, ऐतिहासिक स्‍थलों और कला का प्रदर्शन करते है। यह प्रदर्शनी भारत की संस्‍कृति की विविधता और समृद्धि को एक त्‍यौहार का रंग देती है।

विभिन्‍न सरकारी विभागों और भारत सरकार के मंत्रालयों की झांकियां भी राष्‍ट्र की प्र‍गति में अपने योगदान प्रस्‍तुत करती है। इस परेड का सबसे खुशनुमा हिस्‍सा तब आता है जब बच्‍चे, जिन्‍हें राष्‍ट्रीय वीरता पुरस्‍कार हाथियों पर बैठकर सामने आते हैं। पूरे देश के स्‍कूली बच्‍चे परेड में अलग-अलग लोक नृत्‍य और देश भक्ति की धुनों पर गीत प्रस्‍तुत करते हैं।

परेड में कुशल मोटर साइकिल सवार, जो सशस्‍त्र सेना कार्मिक होते हैं, अपने प्रदर्शन करते हैं। परेड का सर्वाधिक प्रतीक्षित भाग फ्लाई पास्‍ट है जो भारतीय वायु सेना द्वारा किया जाता है। फ्लाई पास्‍ट परेड का अंतिम पड़ाव है, जब भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान राष्‍ट्रपति का अभिवादन करते हुए मंच पर से गुजरते हैं।

जीवन्‍त वेबकास्‍ट (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) के जरिए गणतंत्र दिवस की परेड उन लाखों व्‍यक्तियों को उपलब्‍ध कराई जाती है जो इंटरनेट पर परेड देखना चाहते हैं। यह आयोजन होने के बाद भी इसके कुछ खास हिस्‍से "मांग पर वीडियो उपलब्‍ध" पर मौजूद होते हैं।

राज्‍यों में होने वाले आयोजन अपेक्षाकृत छोटे स्‍तर पर होते हैं और ये सभी राज्‍यों की राजधानियों में आयोजित किए जाते हैं। यहां राज्य के राज्‍यपाल तिरंगा झंडा फहराते हैं। समान प्रकार के आयोजन जिला मुख्‍यालय, उप संभाग, तालुकों और पंचायतों में भी किए जाते हैं।

प्रधानमंत्री की रैली

गणतंत्र दिवस का आयोजन कुल मिलाकर तीन दिनों का होता है और 27 जनवरी को इंडिया गेट पर इस आयोजन के बाद प्रधानमंत्री की रैली में एनसीसी केडेट्स द्वारा विभिन्‍न चौंका देने वाले प्रदर्शन और ड्रिल किए जाते हैं।

लोक तरंग

सात क्षेत्रीय सांस्‍कृतिक केन्‍द्रों के साथ मिलकर संस्‍कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा हर वर्ष 24 से 29 जनवरी के बीच ''लोक तरंग – राष्‍ट्रीय लोक नृत्‍य समारोह'' आयोजित किया जाता है। इस आयोजन में लोगों को देश के विभिन्‍न भागों से आए रंग बिरंगे और चमकदार और वास्‍तविक लोक नृत्‍य देखने का अनोखा अवसर मिलता है।

बीटिंग द रिट्रीट

बीटिंग द रिट्रीट गणतंत्र दिवस आयोजनों का आधिकारिक रूप से समापन घोषित करता है। सभी महत्‍वपूर्ण सरकारी भवनों को 26 जनवरी से 29 जनवरी के बीच रोशनी से सुंदरता पूर्वक सजाया जाता है। हर वर्ष 29 जनवरी की शाम को अर्थात गणतंत्र दिवस के बाद अर्थात गणतंत्र की तीसरे दिन बीटिंग द रिट्रीट आयोजन किया जाता है। यह आयोजन तीन सेनाओं के एक साथ मिलकर सामूहिक बैंड वादन से आरंभ होता है जो लोकप्रिय मार्चिंग धुनें बजाते हैं।

ड्रमर भी एकल प्रदर्शन (जिसे ड्रमर्स कॉल कहते हैं) करते हैं। ड्रमर्स द्वारा एबाइडिड विद मी (यह महात्‍मा गांधी की प्रिय धुनों में से एक कहीं जाती है) बजाई जाती है और ट्युबुलर घंटियों द्वारा चाइम्‍स बजाई जाती हैं, जो काफी दूरी पर रखी होती हैं और इससे एक मनमोहक दृश्‍य बनता है।

इसके बाद रिट्रीट का बिगुल वादन होता है, जब बैंड मास्‍टर राष्‍ट्रपति के समीप जाते हैं और बैंड वापिस ले जाने की अनुमति मांगते हैं। तब सूचित किया जाता है कि समापन समारोह पूरा हो गया है। बैंड मार्च वापस जाते समय लोकप्रिय धुन ''सारे जहां से अच्‍छा बजाते हैं।

ठीक शाम 6 बजे बगलर्स रिट्रीट की धुन बजाते हैं और राष्‍ट्रीय ध्‍वज को उतार लिया जाता हैं तथा राष्‍ट्रगान गाया जाता है और इस प्रकार गणतंत्र दिवस के आयोजन का औपचारिक समापन होता हैं।


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Haider Ajaz
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भारतीय तिरंगे का इतिहास

भारतीय तिरंगे का इतिहास
"सभी राष्‍ट्रों के लिए एक ध्‍वज होना अनिवार्य है। लाखों लोगों ने इस पर अपनी जान न्‍यौछावर की है। यह एक प्रकार की पूजा है, जिसे नष्‍ट करना पाप होगा। ध्‍वज एक आदर्श का प्रतिनिधित्‍व करता है। यूनियन जैक अंग्रेजों के मन में भावनाएं जगाता है जिसकी शक्ति को मापना कठिन है। अमेरिकी नागरिकों के लिए ध्‍वज पर बने सितारे और पट्टियों का अर्थ उनकी दुनिया है। इस्‍लाम धर्म में सितारे और अर्ध चन्‍द्र का होना सर्वोत्तम वीरता का आहवान करता है।"

"हमारे लिए यह अनिवार्य होगा कि हम भारतीय मुस्लिम, ईसाई, ज्‍यूस, पारसी और अन्‍य सभी, जिनके लिए भारत एक घर है, एक ही ध्‍वज को मान्‍यता दें और इसके लिए मर मिटें।"

- महात्‍मा गांधी

प्रत्‍येक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र का अपना एक ध्‍वज होता है। यह एक स्‍वतंत्र देश होने का संकेत है। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज की अभिकल्‍पना पिंगली वैंकैयानन्‍द ने की थी और इसे इसके वर्तमान स्‍वरूप में 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था, जो 15 अगस्‍त 1947 को अंग्रेजों से भारत की स्‍वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इसे 15 अगस्‍त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्‍चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में ''तिरंगे'' का अर्थ भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज है।

भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की प‍ट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्‍वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ 2 और 3 का है। सफेद पट्टी के मध्‍य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्‍तंभ पर बना हुआ है। इसका व्‍यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें 24 तीलियां है।

तिरंगे का विकास

यह जानना अत्‍यंत रोचक है कि हमारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज अपने आरंभ से किन-किन परिवर्तनों से गुजरा। इसे हमारे स्‍वतंत्रता के राष्‍ट्रीय संग्राम के दौरान खोजा गया या मान्‍यता दी गई। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज का विकास आज के इस रूप में पहुंचने के लिए अनेक दौरों में से गुजरा। एक रूप से यह राष्‍ट्र में राजनैतिक विकास को दर्शाता है। हमारे राष्‍ट्रीय ध्‍वज के विकास में कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं:

1906 में भारत का गैर आधिकारिक ध्‍वज

1907 में भीका‍जीकामा द्वारा फहराया गया बर्लिन समिति का ध्‍वज

इस ध्‍वज को 1917 में गघरेलू शासन आंदोलन के दौरान अपनाया गया

इस ध्‍वज को 1921 में गैर अधिकारिक रूप से अपनाया गया

इस ध्‍वज को 1931 में अपनाया गया। यह ध्‍वज भारतीय राष्‍ट्रीय सेना का संग्राम चिन्‍ह भी था।

भारत का वर्तमान तिरंगा ध्‍वज

प्रथम राष्‍ट्रीय ध्‍वज 7 अगस्‍त 1906 को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता में फहराया गया था जिसे अब कोलकाता कहते हैं। इस ध्‍वज को लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था।

द्वितीय ध्‍वज को पेरिस में मैडम कामा और 1907 में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था (कुछ के अनुसार 1905 में)। यह भी पहले ध्‍वज के समान था सिवाय इसके कि इसमें सबसे ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था किंतु सात तारे सप्‍तऋषि को दर्शाते हैं। यह ध्‍वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्‍मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।

तृतीय ध्‍वज 1917 में आया जब हमारे राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड लिया। डॉ. एनी बीसेंट और लोकमान्‍य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान इसे फहराया। इस ध्‍वज में 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्‍तऋषि के अभिविन्‍यास में इस पर बने सात सितारे थे। बांयी और ऊपरी किनारे पर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था।

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान जो 1921 में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में किया गया यहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने एक झंडा बनाया और गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्‍दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्‍व करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्‍व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्‍ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।

वर्ष 1931 ध्‍वज के इतिहास में एक यादगार वर्ष है। तिरंगे ध्‍वज को हमारे राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्‍ताव पारित किया गया । यह ध्‍वज जो वर्तमान स्‍वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्‍य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। तथापि यह स्‍पष्‍ट रूप से बताया गया इसका कोई साम्‍प्रदायिक महत्‍व नहीं था और इसकी व्‍याख्‍या इस प्रकार की जानी थी।

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने इसे मुक्‍त भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया। स्‍वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्‍व बना रहा। केवल ध्‍वज में चलते हुए चरखे के स्‍थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्‍वज अंतत: स्‍वतंत्र भारत का तिरंगा ध्‍वज बना।

ध्‍वज के रंग

भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्‍य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

चक्र

इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्‍यु है।

ध्‍वज संहिता

26 जनवरी 2002 को भारतीय ध्‍वज संहिता में संशोधन किया गया और स्‍वतंत्रता के कई वर्ष बाद भारत के नागरिकों को अपने घरों, कार्यालयों और फैक्‍ट‍री में न केवल राष्‍ट्रीय दिवसों पर, बल्कि किसी भी दिन बिना किसी रुकावट के फहराने की अनुमति मिल गई। अब भारतीय नागरिक राष्‍ट्रीय झंडे को शान से कहीं भी और किसी भी समय फहरा सकते है। बशर्ते कि वे ध्‍वज की संहिता का कठोरता पूर्वक पालन करें और तिरंगे की शान में कोई कमी न आने दें। सुविधा की दृष्टि से भारतीय ध्‍वज संहिता, 2002 को तीन भागों में बांटा गया है। संहिता के पहले भाग में राष्‍ट्रीय ध्‍वज का सामान्‍य विवरण है। संहिता के दूसरे भाग में जनता, निजी संगठनों, शैक्षिक संस्‍थानों आदि के सदस्‍यों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में बताया गया है। संहिता का तीसरा भाग केन्‍द्रीय और राज्‍य सरकारों तथा उनके संगठनों और अभिकरणों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में जानकारी देता है।

26 जनवरी 2002 विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्‍वज को किस प्रकार फहराया जाए:

क्‍या करें

  • राष्‍ट्रीय ध्‍वज को शैक्षिक संस्‍थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्‍काउट शिविरों आदि) में ध्‍वज को सम्‍मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्‍वज आरोहण में निष्‍ठा की एक शपथ शामिल की गई है।
  • किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्‍थान के सदस्‍य द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज का अरोहण/प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्‍यथा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के मान सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।
  • नई संहिता की धारा 2 में सभी निजी नागरिकों अपने परिसरों में ध्‍वज फहराने का अधिकार देना स्‍वीकार किया गया है।

क्‍या न करें

  • इस ध्‍वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दें या वस्‍त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक फहराया जाना चाहिए।
  • इस ध्‍वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्‍पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता।
  • किसी अन्‍य ध्‍वज या ध्‍वज पट्ट को हमारे ध्‍वज से ऊंचे स्‍थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्‍वज को वंदनवार, ध्‍वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता।

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Haider Ajaz
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Sunday, January 24, 2010

Paper of Intelligence Officer in Narcotics Bureau held on 24/1/2010

औपनिवेशिक भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया

औपनिवेशिक भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया

 

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक ये कस्बे मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई;  बड़े शहर बन गए थे जहाँ से नए शासक पूरे देश पर नियंत्रण करते थे। आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने तथा नए शासकों के प्रभुत्व को दर्शाने के लिए संस्थानों की स्थापना की गई। भारतीयों ने इन शहरों में राजनीतिक प्रभुत्व का नए तरीकों से अनुभव किया। मद्रास, बम्बई और कलकत्ता के नक्शे अन्य पुराने भारतीय कस्बों से काफी हद तक अलग थे, और इन शहरों में बनाए गए भवनों पर अपने औपनिवेशिक उद्भव की स्पष्ट छाप थी।  सरकारी अधिकारी के बंगले और अमीर व्यापारी के महलनुमा आवास से लेकर श्रमिक की साधारण झोपड़ी तक, भवन सामाजिक सम्बन्धों और पहचानों को कई प्रकार से परिलक्षित करते हैं।

 पूर्व-औपनिवेशिक काल में कस्बे और शहर

कस्बों को सामान्यत: ग्रामीण इलाकों के विपरीत परिभाषित किया जाता था। वे विशिष्ट प्रकार की आर्थिक गतिविधियों और संस्कृतियों के प्रतिनिधि बन कर उभरे। लोग ग्रामीण अंचलों में खेती, जंगलों में संग्रहण या पशुपालन के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे। इसके विपरीत कस्बों में शिल्पकार, व्यापारी, प्रशासक तथा शासक रहते थे। कस्बों का ग्रामीण जनता पर प्रभुत्व होता था और वे खेती से प्राप्त करों और अधिशेष के आधार पर फलते-फूलते थे। अकसर कस्बों और शहरों की किलेबन्दी की जाती थी जो ग्रामीण क्षेत्रों से इनकी पृथकता को चिन्हित करती थी। फिर भी कस्बों और गाँवों के बीच की पृथकता अनिश्चित होती थी। किसान तीर्थ करने के लिए लम्बी दूरियाँ तय करते थे और कस्बों से होकर गुजरते थे वे अकाल के समय कस्बों में जमा भी हो जाते थे। इसके अतिरिक्त लोगों और माल का कस्बों से गाँवों की ओर विपरीत गमन भी था। जब कस्बों पर आक्रमण होते थे तो लोग अकसर ग्रामीण क्षेत्रों में शरण लेते थे। व्यापारी और फैरीवाले कस्बों से माल गाँव ले जाकर बेचते थे, जिसके द्वारा बाजारों का फैलाव और उपभोग की नयी शैलियों का सृजन होता था।

सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में मुगलों द्वारा बनाए गए शहर जनसंख्या के केन्द्रीकरण, अपने विशाल भवनों तथा अपनी शाही शोभा व समृद्ध के लिए प्रसिद्ध थे। आगरा, दिल्ली और लाहौर शाही प्रशासन और सत्ता के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। मनसबदार और जागीरदार जिन्हें साम्राज्य के अलग-अलग भागों में क्षेत्र दिये गए थे, सामान्यत: इन शहरों में अपने आवास रखते थे : इन केन्द्रों में आवास एक अमीर की स्थिति और प्रतिष्ठा का संकेतक था। इन केंद्रों में सम्राट और कुलीन वर्ग की उपस्थिति के कारण वहाँ कई प्रकार की सेवाएँ प्रदान करना आवश्यक था। शिल्पकार कुलीन वर्ग के परिवारों के लिए विशिष्ट हस्तशिल्प का उत्पादन करते थे।

ग्रामीण अंचलों से शहर के बाजारों में निवासियों और सेना के लिए अनाज लाया जाता था। राजकोष भी शाही राजधानी में ही स्थित था। इसलिए राज्य का राजस्व भी नियमित रूप से राजधानी में आता रहता था। सम्राट एक किलेबन्द महल में रहता था और नगर एक दीवार से घिरा होता था जिसमें अलग-अलग द्वारों से आने-जाने पर नियंत्रण रखा जाता था। नगरों के भीतर उद्यान, मस्जिदें, मन्दिर, मकबरे, महाविद्यालय, बाजार तथा कारवाँ सराय स्थिति होती थीं। नगर का ध्यान महल और मुख्य मस्जिद की ओर होता था। दक्षिण भारत के नगरों जैसे मदुरई और काँचीपुरम्‌ में मुख्य केन्द्र मन्दिर होता था। ये नगर महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र भी थे। धार्मिक त्योहार अकसर मेलों के साथ होते थे जिससे तीर्थ और व्यापार जुड़ जाते थे। सामान्यत: शासक धार्मिक संस्थानों का सबसे ऊँचा प्राधिकारी और मुख्य संरक्षक होता था। समाज और शहर में अन्य समूहों और वर्गों का स्थान शासक के साथ उनके सम्बन्धों से तय होता था। मध्यकालीन शहरों में शासक वर्ग के वर्चस्व वाली सामाजिक व्यवस्था में हरेक से अपेक्षा की जाती थी कि उसे समाज में अपना स्थान पता हो। उत्तर भारत में इस व्यवस्था को बनाए रखने का कार्य कोतवाल नामक राजकीय अधिकारी का होता था जो नगर में आंतरिक मामलों पर नजर रखता था और कानून-व्यवस्था बनाए रखता था।

 अठारहवीं शताब्दी में परिवर्तन

यह सब अठारहवीं शताब्दी में बदलने लगा। राजनीतिक तथा व्यापारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर पतनोन्मुख हुए और नए नगरों का विकास होने लगा। मुगल सत्ता के क्रमिक शरण के कारण ही उसके शासन से सम्बद्ध नगरों का अवसान हो गया। मुगल राजधानियों, दिल्ली और आगरा ने अपना राजनीतिक प्रभुत्व खो दिया। नयी क्षेत्रीय ताकतों का विकास क्षेत्रीय राजधानियों — लखनऊ…, हैदराबाद, सेरिंगपट्‌म, पूना ;आज का फणेद्ध, नागपुर, बड़ौदा तथा तंजौर ;आज का तंजावुर — के बढ़ते महत्व में परिलक्षित हुआ। व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुगल केन्द्रों से इन नयी राजधानियों की ओर काम तथा संरक्षण की तलाश में आने लगे। नए राज्यों के बीच निरंतर लड़ाइयों का परिणाम यह था कि भाड़े के सैनिकों को भी यहाँ तैयार रोजगार मिलता था। कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य से सम्बद्ध अधिकारियों ने भी इस अवसर का उपयोग 'कस्बे' और 'गंज' जैसी नयी शहरी बस्तियों को बसाने में किया।

परंतु राजनीतिक विकेन्द्रीकरण के प्रभाव सब जगह एक जैसे नहीं थे। कई स्थानों पर नए सिरे से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं, कुछ अन्य स्थानों पर युद्ध, लूट-पाट तथा राजनीतिक अनिश्चितता आर्थिक पतन में परिणत हुई। व्यापार तंत्रों में परिवर्तन शहरी केन्द्रों के इतिहास में परिलक्षित हुए। यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों ने पहले, मुगल काल में ही विभिन्न स्थानों पर आधार स्थापित कर लिए थे : पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी में, डचों ने 1605 में मछलीपट्‌नम में, अंग्रेजों ने मद्रास में 1639 में तथा फ़्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी ;आज का पुदुचेरी में। व्यापारिक गतिविधियों में विस्तार के साथ ही इन व्यापारिक केंद्रों के आस-पास नगर विकसित होने लगे। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक स्थल-आधारित साम्राज्यों का स्थान शक्तिशाली जल-आधारित यूरोपीय साम्राज्यों ने ले लिया। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद तथा पूँजीवाद की शक्तियाँ अब समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं।

मध्य-अठारहवीं शताब्दी से परिवर्तन का एक नया चरण आरंभ हुआ। जब व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य स्थानों पर केंद्रित होने लगीं पतनोन्मुख हो गए। 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद जैसे-जैसे अंग्रेजों ने राजनीतिक नियंत्रण हासिल किया, और इंग्लिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार फैला, मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह शहर तेजी से नयी आर्थिक राजधानियों के रूप में उभरे। ये औपनिवेशिक प्रशासन और सत्ता के केन्द्र भी बन गए। नए भवनों और संस्थानों का विकास हुआ, तथा शहरी स्थानों को नए तरीकों से व्यवस्थित किया गया। नए रोजगार विकसित हुए और लोग इन औपनिवेशिक शहरों की ओर उमड़ने लगे। लगभग 1800 तक ये जनसंख्या के लिहाज से भारत के विशालतम शहर बन गए थे।

औपनिवेशिक शहरों की पड़ताल

औपनिवेशिक शासन बेहिसाब आंकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित था। अंग्रेजों ने अपने व्यावसायिक मामलों को चलाने के लिए व्यापारिक गतिविधियाँ का विस्तृत ब्यौरा रखा था। बढ़ते शहरों में जीवन की गति और दिशा पर नजर रखने के लिए वे नियमित रूप से सर्वेक्षण करते थे। सांख्यिकीय आँकड़े इकट्‌ठा करते थे और विभिन्न प्रकार की सरकारी रिपोर्ट प्रकाशित करते थे। प्रारंभिक वर्षों से ही औपनिवेशिक सरकार ने मानचित्र तैयार करने पर खास ध्यान दिया। सरकार का मानना था कि किसी जगह की बनावट और भूदृश्य को समझने के लिए नक्शे जरूरी होते हैं। इस जानकारी के सहारे वे इलाके पर ज्यादा बेहतर नियंत्रण कायम कर सकते थे। जब शहर बढ़ने लगे तो न केवल उनके विकास की योजना तैयार करने के लिए बल्कि व्यवसाय को विकसित करने और अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए भी नक्शे बनाये जाने लगे। शहरों के नक्शों से हमें उस स्थान पर पहाड़ियों, नदियों व हरियाली का पता चलता है। ये सारी चीजें रक्षा सम्बन्धी उद्देश्यों के लिए योजना तैयार करने में बहुत काम आती हैं। इसके अलावा घाटों की जगह, मकानों की सघनता और गुणवत्ता तथा सड़कों की स्थिति आदि से इलाके की व्यावसायिक संभावनाओं का पता लगाने और कराधन ;टैक्स व्यवस्थाद्ध की रणनीति बनाने में मदद मिलती है।

उन्नीसवीं सदी के आखिर से अंग्रेजों ने वार्षिक नगर पालिका कर वसूली के जरिए शहरों के रखरखाव के वास्ते पैसा इकट्‌ठा करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। टकरावों से बचने के लिए उन्होंने कुछ जिम्मेदारियाँ निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों को भी सौंपी हुई थीं। आंशिक लोक-प्रतिनिध्त्वि से लैस नगर निगम जैसे संस्थानों का उद्देश्य शहरों में जलापूर्ति, निकासी, सड़क निर्माण और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसी अत्यावश्यक सेवाएँ उपलब्ध कराना था। दूसरी तरफ़ , नगर निगमों की गतिविधियों से नए तरह के रिकॉड्‌र्स पैदा हुए जिन्हें नगर पालिका रिकॉर्ड रूम में सँभाल कर रखा जाने लगा। शहरों के फैलाव पर नजर रखने के लिए नियमित रूप से लोगों की गिनती की जाती थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक विभिन्न क्षेत्रों में कई जगह स्थानीय स्तर पर जनगणना की जा चुकी थी। अखिल भारतीय जनगणना का पहला प्रयास 1872 में किया गया। इसके बाद, 1881 से दशकीय ;हर 10 साल में होने वाली जनगणना एक नियमित व्यवस्था

बन गई। भारत में शहरीकरण का अध्ययन करने के लिए जनगणना से निकले आँकड़े एक बहुमूल्य स्रोत हैं। जब हम इन रिपोर्ट को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे पास ऐतिहासिक परिवर्तन को मापने के लिए ठोस जानकारी उपलब्धि है। बीमारियों से होने वाली मौतों की सारणियों का अन्तहीन सिलसिला, या उम्र, लिंग, जाति एवं व्यवसाय के अनुसार लोगों को गिनने की व्यवस्था से संख्याओं का एक विशाल भंडार मिलता है जिससे सटीकता का भ्रम पैदा हो जाता है। लेकिन इतिहासकारों ने पाया है कि ये आंकड़े भ्रामक भी हो सकते हैं। इन  आंकड़ों का इस्तेमाल करने से पहले हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि आंकड़े किसने इकट्‌ठा किए हैं, और उन्हें क्यों तथा कैसे इकट्‌ठा किया गया था। हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि किस चीज को मापा गया था और किस चीज को नहीं मापा गया था।

मिसाल के तौर पर, जनगणना एक ऐसा साधिन थी जिसके जरिए आबादी के बारे में सामाजिक जानकारियों को सुगम्य आंकडों में तब्दील किया जाता था। लेकिन इस प्रक्रिया में कई भ्रम थे। जनगणना आयुक्तों ने आबादी के विभिन्न तबकों का वर्गीकरण करने के लिए अलग-अलग श्रेणियाँ बना दी थीं। कई बार यह वर्गीकरण निहायत अतार्किक होता था और लोगों की परिवर्तनशील व परस्पर काटती पहचानों को पूरी तरह नहीं पकड़ पाता था। भला ऐसे व्यक्ति को किस श्रेणी में रखा जाएगा जो कारीगर भी था और व्यापारी भी। जो आदमी अपनी जमीन पर खुद खेती करता है और उपज को खुद शहर ले जाता है, उसको किस श्रेणी में गिना जाएगा। उसे किसान माना जाएगा या व्यापारी?
 
बहुधा लोग खुद भी इस प्रक्रिया में मदद देने से इनकार कर देते थे या जनगणना आयुक्तों को गलत जवाब दे देते थे। काफ़ी अरसे तक वे जनगणना कार्यों को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। लोगों को लगता था कि सरकार नए टैक्स लागू करने के लिए जाँच करवा रही है। उँफची जाति के लोग अपने घर की औरतों के बारे में जानकारी देने से हिचकिचाते थे महिलाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे घर के भीतरी हिस्से में दुनिया से कट कर रहें, उनके बारे में सार्वजनिक दृष्टि या सार्वजनिक जाँच को सही नहीं माना जाता था। जनगणना अधिकारियों ने यह भी पाया कि बहुत सारे लोग ऐसी पहचानों का दावा करते थे जो उँची हैसियत की मानी जाती थीं। शहरों में ऐसे लोग भी थे जो फैरी लगाते थे या काम न होने पर मजदूरी करने लगते थे।

इस तरह के बहुत सारे लोग जनगणना कर्मचारियों के सामने खुद को अकसर व्यापारी बताते थे क्योंकि उन्हें मजदूरी के मुकाबले व्यापार ज्यादा सम्मानित गतिविधि लगती थी। मृत्यु दर और बीमारियों से संबंध्ति आंकड़ों को इकट्‌ठा करना भी लगभग असंभव था। बीमार पड़ने की जानकारी भी लोग प्राय: नहीं देते थे। बहुत बार इलाज भी गैर-लाइसेंसी डॉक्टरों से करा लिया जाता था। ऐसे में बीमारी या मौत की घटनाओं का सटीक हिसाब लगाना कैसे संभव था? कहने का मतलब यही है कि इतिहासकारों को जनगणना जैसे स्रोतों का भारी अहतियात से इस्तेमाल करना पड़ता है। उन्हें जनगणना के पीछे निहित संभावित पूर्वाग्रहों को ध्यान में रखते हुए इन संख्याओं की सावधानी से पड़ताल करनी चाहिए और यह समझना चाहिए कि ये संख्याएँ क्या नहीं बता रही हैं। मगर जनगणना और नगरपालिका जैसे संस्थानों के सर्वेक्षण मानचित्रों और रिकार्डों के सहारे औपनिवेशिक शहरों का पुराने शहरों के मुकाबले ज्यादा विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।

बदलाव के रुझान

जनगणनाओं का सावधानी से अध्ययन करने पर कुछ दिलचस्प रुझान सामने आते हैं। सन्‌ 1800 के बाद हमारे देश में शहरीकरण की रफ़्तार धीमी रही। पूरी उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के पहले दो दशकों तक देश की कुल आबादी में शहरी आबादी का हिस्सा बहुत मामूली और स्थिर रहा।  1900 से 1940 के बीच 40 सालों के दरमियान शहरी आबादी 10 प्रतिशत से बढ़ कर लगभग 13 प्रतिशत हो गई थी। अपरिवर्तनशीलता के नीचे विभिन्न क्षेत्रों में शहरी विकास के रुझानों में उल्लेखनीय उतार-चढ़ाव छिपे हुए हैं। छोटे कस्बों के पास आर्थिक रूप से विकसित होने के ज्यादा मौके नहीं थे। दूसरी तरफ़ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास तेजी से फैले और जल्दी ही विशाल शहर बन गए।

कहने का मतलब यह है कि नए व्यावसायिक एवं प्रशासनिक केंद्रों के रूप में इन तीन शहरों के पनपने के साथ-साथ कई दूसरे तत्कालीन शहर कमजोर भी पड़ते जा रहे थे। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का केंद्र होने के नाते ये शहर भारतीय सूती कपड़े जैसे निर्यात उत्पादों के लिए संग्रह डिपो थे। मगर इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद इस प्रवाह की दिशा बदल गई और इन शहरों में ब्रिटेन के कारखानों में बनी चीजें उतरने लगीं। भारत से तैयार माल की बजाय कच्चे माल का निर्यात होने लगा। इस आर्थिक गतिविधि का स्वरूप ऐसा था कि उसने औपनिवेशिक शहरों को देश के परंपरागत शहरों और कस्बों से बिलकुल अलग ला खड़ा किया।

1853 में रेलवे की शुरुआत हुई। इसने शहरों की कायापलट कर दी। आर्थिक गतिविधियों का केंद्र परंपरागत शहरों से दूर जाने लगा क्योंकि ये शहर पुराने मार्गों और नदियों के समीप थे। हरेक रेलवे स्टेशन कच्चे माल का संग्रह केंद्र और आयातित वस्तुओं का वितरण बिंदु बन गया। उदाहरण के लिए, गंगा के किनारे स्थित मिर्जापुर दक्कन से कपास तथा सूती वस्तुओं के संग्रह का केंद्र था जो बम्बई तक जाने वाली रेलवे लाइन के अस्तित्व में आने के बाद अपनी पहचान खोने लगा था। रेलवे नेटवर्क के विस्तार के बाद रेलवे वर्कशॉप्स और रेलवे कालोनियों की भी स्थापना शुरू हो गई। जमालपुर, वॉल्टेयर और बरेली जैसे रेलवे नगर अस्तित्व में आए।

 नए शहर कैसे थे?

 बंदरगाह, किले और सेवाओं के केंद्र अठारहवीं सदी तक मद्रास, कलकत्ता और बम्बई महत्वपूर्ण बंदरगाह बन चुके थे।  ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कारखानों ;यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन्हीं बस्तियों में बनाए और यूरोपीय कंपनियों के बीच प्रतिस्पधार् के कारण सुरक्षा के उद्देश्य से इन बस्तियों की किलेबंदी कर दी। मद्रास में फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम और बम्बई में फ़ोर्ट, ये इलाके ब्रिटिश आबादी के रूप में जाने जाते थे। यूरोपीय व्यापारियों के साथ लेन-देन चलाने वाले भारतीय व्यापारी, कारीगर और कामगार इन किलों के बाहर अलग बस्तियों में रहते थे। यूरोपीयों और भारतीयों के लिए शुरू से ही अलग क्वार्टर बनाए गये थे। उस समय के लेखन में उन्हें व्हाइट टाउन ;गोरा शहर और ब्लैक टाउन ;काला शहर के नाम से उद्धृत किया जाता था। राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में आ जाने के बाद यह नस्ली फ़र्क और भी तीखा हो गया।

उन्नीसवीं सदी के मध्य में रेलवे के फैलते नेटवर्क ने इन शहरों को शेष भारत से जोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि जहाँ से कच्चा माल और मजदूर आते थे, ऐसे देहाती और दूर-दराज इलाव्फ़ो भी इन बंदरगाह शहरों से गहरे तौर पर जुड़ने लगे। क्योंकि कच्चा माल निर्यात के लिए इन शहरों में आता था और सस्ते श्रम की कोई कमी नहीं थी इसलिए वहाँ कारखानें लगाना आसान था। 1850 के दशक के बाद भारतीय व्यापारियों और उद्यमियों ने बम्बई में सूती कपड़ा मिलें लगाईं। कलकत्ता के बाहरी इलाव्फ़ो में यूरोपीयों के स्वामित्व वाली जूट मिलें खोली गईं।

यह भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास की शुरुआत थी। हालाँकि कलकत्ता, बम्बई और मद्रास इंग्लिश कारखानो के लिए कच्चा माल भेजते थे और पूँजीवाद जैसी आधुनिक आर्थिक ताकतों के बल पर मजबूती से सामने आ चुके थे लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से फ़ैक्ट्री उत्पादन पर आधारित नहीं थी। इन शहरों की ज्यादातर कामकाजी आबादी उस श्रेणी में आती थी जिसे अर्थशास्त्री तृतीयक क्षेत्र या सेवा क्षेत्र कहते हैं। उस समय यहाँ सही मायनों में केवल दो औद्योगिक शहर थे। एक कानपुर और दूसरा जमशेदपुर। कानपुर में चमड़े की चीजें, उफनी और सूती कपड़े बनते थे जबकि जमशेदपुर स्टील उत्पादन के लिए विख्यात था। भारत कभी भी एक आधुनिक औद्योगिक देश नहीं बन पाया क्योंकि पक्षपातपूर्ण औपनिवेशिक नीतियों ने हमारे औद्योगिक विकास को आगे नहीं बढ़ने दिया। कलकत्ता, बम्बई और मद्रास बड़े शहर तो बने लेकिन इससे औपनिवेशिक भारत की समूची अर्थव्यवस्था में कोई नाटकीय इजाफ़ा नहीं हुआ।

 एक नया शहरी परिवेश

औपनिवेशिक शहर नए शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित करते थे। राजनीतिक सत्ता और संरक्षण भारतीय शासकों के स्थान पर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के हाथ में जाने लगा। दुभाषिए, बिचौलिए, व्यापारी और माल आपूर्तिकर्ता के रूप में काम करने वाले भारतीयों का भी इन नए शहरों में एक महत्वपूर्ण स्थान था। नदी या समुद्र के किनारे आर्थिक गतिविधियों से गोदियों और घाटियों का विकास हुआ। समुद्र किनारे गोदाम, वाणिज्यिक कार्यालय, जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ, यातायात डिपो और बैंकिंग संस्थानों की स्थापना होने लगी। कंपनी के मुख्य प्रशासकीय कार्यालय समुद्र तट से दूर बनाए गए। कलकत्ता में स्थित राइटर्स बिल्डिंग इसी तरह का एक दफ़तर हुआ करती थी। यहाँ फ्राइटर्स का आशय क्लर्को से था। यह ब्रिटिश शासन में नौकरशाही के बढ़ते कद का संकेत था। किले की चारदिवारी के आस-पास यूरोपीय व्यापारियों और एजेंटों ने यूरोपीय शैली के महलनुमा मकान बना लिए थे। कुछ ने शहर की सीमा से सटे उपशहरी  इलाकों में बगीचा घर  बना लिए थे। शासक वर्ग के लिए नस्ली विभेद पर आधरित क्लब, रेसकोर्स और रंगमंच भी बनाए गए। अमीर भारतीय एजेंटों और बिचौलियों ने बाजारों के आस-पास ब्लैक टाउन में परंपरागत ढंग के दालानी मकान बनवाए। उन्होंने भविष्य में पैसा लगाने के लिए शहर के भीतर बड़ी-बड़ी जमीनें भी ख्ऱीद ली थीं।

अपने अंग्रेज स्वामियों को प्रभावित करने के लिए वे त्योहारों के समय रंगीन दावतों का आयोजन करते थे। समाज में अपनी हैसियत साबित करने के लिए उन्होंने मंदिर भी बनवाए। मजदूर वर्ग के लोग अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों के लिए ख्ऩाासामा, पालकीवाहक, गाड़ीवान, चौकीदार, पोर्टर और निर्माण व गोदी मजदूर के रूप में विभिन्न सेवाएँ उपलब्ध् कराते थे। वे शहर के विभिन्न इलाकों में कच्ची झोंपड़ियों में रहते थे।

उन्नीसवीं सदी के मध्य में औपनिवेशिक शहर का स्वरूप और भी बदल गया। 1857 के विद्रोह के बाद भारत में अंग्रेजों का रवैया विद्रोह की लगातार आशंका से तय होने लगा था। उनको लगता था कि शहरों की और अच्छी तरह हिफ़ाजत करना जरूरी है और अंग्रेजों को देशियों ; दूर, ज्यादा सुरक्षित व पृथक बस्तियों में रहना चाहिए। पुराने कस्बों के इर्द-गिर्द चरागाहों और खेतों को साफ़ कर दिया गया। सिविल लाइन्स के नाम से नए शहरी इलाको विकसित किए गए। सिविल लाइन्स में केवल गोरों को बसाया गया। छावनियों को भी सुरक्षित स्थानों के रूप में विकसित किया गया। छावनियों में यूरोपीय कमान के अंतर्गत भारतीय सैनिक तैनात किए जाते थे। ये इलाके मुख्य शहर से अलग लेकिन जुड़े हुए होते थे। चौड़ी सड़कों, बड़े बगीचों में बने बंगलों, बैरकों, परेड मैदान और चर्च आदि से लैस ये छावनियाँ यूरोपीय लोगों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल तो थीं ही, भारतीय कस्बों की घनी और बेतरतीब बसावट के विपरीत
व्यवस्थित शहरी जीवन का एक नमूना भी थीं। अंग्रेजों की नजर में काले इलाव्फ़ो न केवल अराजकता और हो-हल्ले का केंद्र थे, वे गंदगी और बीमारी का स्रोत भी थे। काफ़ी समय तक अंग्रेजों की दिलचस्पी गोरों की आबादी में सफ़ाई और स्वच्छता बनाए रखने तक ही सीमित थी लेकिन जब हैजा और प्लेग जैसी महामारियाँ फैलीं और हजारों लोग मारे गये तो औपनिवेशिक अफ़सरों को स्वच्छता व सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए ज्यादा कड़े कदम उठाने की जरूरत महसूस हुई। उनको भय था कि कहीं ये बीमारियाँ ब्लैक टाउन से व्हाइट टाउन में भी न फैल जाएँ।

1860-70 के दशकों से स्वच्छता के बारे में कड़े प्रशासकीय उपाय लागू किए गये और भारतीय शहरों में निर्माण गतिविधियों पर अंकुश लगाया गया। लगभग इसी समय भूमिगत पाइप आधरित जलापूर्ति, निकासी और नाली व्यवस्था भी निर्मित की गई। इस प्रकार भारतीय शहरों को नियमित व नियंत्रित करने के लिए स्वच्छता निगरानी भी एक अहम तरीका बन गया।

 पहला हिल स्टेशन

छावनियों की तरह हिल स्टेशन ;पर्वतीय सैरगाह  भी औपनिवेशिक शहरी विकास का एक खास पहलू थी। हिल स्टेशनों की स्थापना और बसावट का संबंध् सबसे पहले ब्रिटिश सेना की जरूरतों से था। सिमला ;वर्तमान शिमला की स्थापना गुरखा युद्ध ;1815-1816 के दौरान की गई। अंग्रेज-मराठा ;1818 युद्ध के कारण अंग्रेजों की दिलचस्पी माउंट आबू में बनी जबकि दार्जीलिंग को 1835 में सिक्किम के राजाओं से छीना गया था। ये हिल स्टेशन फ़ौजियों को ठहराने, सरहद की चौकसी करने और दुश्मन पर हमला बोलने के लिए महत्वपूर्ण स्थान थे।

भारतीय पहाड़ों की मृदु और ठंडी जलवायु को फायदे की चीज माना जाता था, खासतौर से इसलिए कि अंग्रेज गर्म मौसम को बीमारियाँ पैदा करने वाला मानते थे। उन्हें गर्मियों के कारण हैजा और मलेरिया की सबसे ज्यादा आंशका रहती थी। वे फ़ौजियों को इन बीमारियों से दूर रखने की पूरी कोशिश करते थे। सेना की भारी-भरकम मौजूदगी के कारण ये स्थान पहाड़ियों में एक नयी तरह की छावनी बन गये। इन हिल स्टेशनों को सेनेटोरियम के रूप में भी विकसित किया गया था। सिपाहियों को यहाँ विश्राम करने और इलाज कराने के लिए भेजा जाता था।

क्योंकि हिल स्टेशनों की जलवायु यूरोप की ठंडी जलवायु से मिलती-जुलती थी इसलिए नये शासकों को वहाँ की आबो-हवा काफ़ी लुभाती थी। वायसराय अपने पूरे अमले के साथ हर साल गर्मियों में हिल स्टेशनों पर ही डेरा डाल लिया करते थे। 1864 में वायसराय जॉन लॉरेंस ने अधिकॄत रूप से अपनी काउंसिल शिमला में स्थानांतरित कर दी और इस तरह गर्म मौसम में राजधानियाँ बदलने के सिलसिले पर विराम लगा दिया। शिमला भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ़ ;प्रधान सेनापति का भी अध्कृत आवास बन गया।

हिल स्टेशन ऐसे अंग्रेजों और यूरोपीयनों के लिए भी आदर्श स्थान थे जो अपने घर जैसी मिलती-जुलती बस्तियाँ बसाना चाहते थे। उनकी इमारतें यूरोपीय शैली की होती थीं। अलग-अलग मकानों के बाद एक-दूसरे से कटे विला और बागों के बीच में स्थित कॉटेज बनाए जाते थे। एंग्लिकन चर्च और शैक्षणिक संस्थान आंग्ल आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते थे। सामाजिक दावत, चाय, बैठक, पिकनिक, रात्रिभोज, मेले, रेस और रंगमंच जैसी घटनाओं के रूप में यूरोपीयों का सामाजिक जीवन भी एक खास किस्म का था। रेलवे के आने से ये पर्वतीय सैरगाहें बहुत तरह के लोगों की पहुँच में आ गईं। अब भारतीय भी वहाँ जाने लगे। उच्च और मध्यवर्गीय लोग, महाराजा, वकील और व्यापारी सैर-सपाटे के लिए इन स्थानों पर जाने लगे। वहाँ उन्हें शासक यूरोपीय अभिजन के निकट होने का संतोष मिलता था। हिल स्टेशन औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण थे। पास के हुए इलाकों में चाय और कॉप्फ़ी बगानों की स्थापना से मैदानी इलाकों से बड़ी संख्या में मजदूर वहाँ आने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि अब हिल स्टेशन केवल यूरोपीय लोगों की ही सैरगाह नहीं रह गए थे।

 नए शहरों में सामाजिक जीवन

साधारण भारतीय आबादी के लिए नए शहर दाँतों तले उँगली दबा लेने का अनुभव थे जहाँ ज़िंदगी हमेशा दौड़ती-भागती सी दिखाई देती थी। वहाँ चरम संपन्नता और गहन गरीबी, दोनों के दर्शन एक साथ होते थे। घोड़ागाड़ी जैसे नए यातायात साधन और बाद में ट्रामों और बसों के आने से यह हुआ कि अब लोग शहर के केंद्र से दूर जाकर भी बस सकते थे। समय के साथ काम की जगह और रहने की जगह, दोनों एक-दूसरे से अलग होते गए। घर से दफ़तर या फ़ैक्ट्री जाना एक नए किस्म का अनुभव बन गया। यद्यपि अब पुराने शहरों में मौजूद सामंजस्य और वाकफ़ियत का अहसास गायब था लेकिन टाउन हॉल, सार्वजनिक पार्क, रंगशालाओं और बीसवीं सदी में सिनेमा हॉलों जैसे सार्वजनिक स्थानों के बनने से शहरों में लोगों को मिलने-जुलने की उत्तेजक नयी जगह और अवसर मिलने लगे थे। शहरों में नए सामाजिक समूह बने तथा लोगों की पुरानी पहचानें महत्वपूर्ण नहीं रहीं। तमाम वर्गों के लोग बड़े शहरों में आने लगे। क्ल्र्को, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, अकाउंटेंट्‌स की माँग बढ़ती जा रही थी। नतीजा, मध्यवर्ग बढ़ता गया। उनके पास स्वूल, कॉलेज और लाइब्रेरी जैसे नए शिक्षा संस्थानों तक अच्छी पहुँच थी। शिक्षित होने के नाते वे समाज और सरकार के बारे में अख्ब़ारों, पत्रिकाओं और सार्वजनिक सभाओं में अपनी राय व्यक्त कर सकते थे। बहस और चर्चा का एक नया सार्वजनिक दायरा पैदा हुआ। सामाजिक रीति-रिवाज, कायदे-कानून और तौर-तरीकों पर सवाल उठने लगे।

लेकिन बहुत सारे सामाजिक बदलाव स्वाभाविक रूप से या आसानी से नहीं आ रहे थे। शहरों में औरतों के लिए नए अवसर थे। पत्र-पत्रिकाओं, आत्मकथाओं और फस्तकों के माध्यम से मध्यवर्गीय औरतें खुद को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही थीं। परंपरागत पितृसत्तात्मक कायदे-कानूनों को बदलने की इन कोशिशों से बहुत सारे लोगों को असंतोष था। रूढ़िवादियों को भय था कि अगर औरतें पढ़-लिख गईं तो वे दुनिया को उलट कर रख देंगी और पूरी सामाजिक व्यवस्था का आधर ख्त़ारे में पड़ जाएगा। यहाँ तक कि महिलाओं की शिक्षा का समर्थन करने वाले सुधारक भी औरतों को माँ और पत्नी की परंपरागत भूमिकाओं में ही देखते थे और चाहते थे कि वे घर की चारदीवारी के भीतर ही रहें।

समय बीतने के साथ सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी। वे नौकरानी और फ़ैक्ट्री मजदूर, शिक्षिका, रंगकर्मी  और फ़िल्म कलाकार के रूप में शहर के नए व्यवसायों में दाखिल होने लगीं। लेकिन ऐसी महिलाओं को लंबे समय तक सामाजिक रूप से सम्मानित नहीं माना जाता था जो घर से निकलकर सार्वजनिक स्थानों में जा रही थीं। शहरों में मेहनतकश गरीबों या कामगारों का एक नया वर्ग उभर रहा था। ग्रामीण इलाकों के गरीब रोजगार की उम्मीद में शहरों की तरफ़ भाग रहे थे। कुछ लोगों को शहर नए अवसरों का स्रोत दिखाई देते थे। कुछ को एक भिन्न जीवनशैली का आकर्षण खींच रहा था। उनके लिए यह एक ऐसी चीज थी जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। शहर में जीने की लागत पर अंकुश रखने के लिए ज्यादातर पुरुष प्रवासी अपना परिवार गाँव में छोड़कर आते थे। शहर की ज़िन्दगी एक संघर्ष थी : नौकरी पक्की नहीं थी, खाना मँहगा था, रिहाइश का खर्चा उठाना मुश्किल था। फिर भी ग्ऱीबों ने वहाँ प्राय: अपनी एक अलग जीवंत शहरी संस्कृति रच ली थी। वे धर्मिक त्योहारों, तमाशों ;लोक रंगमंचद्ध और स्वांग आदि में उत्साहपूर्वक हिस्सा लेते थे जिनमें ज्यादातर उनके भारतीय और यूरोपीय स्वामियों का मजाक उड़ाया जाता था। 


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Haider Ajaz
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भारत मे अंग्रेजों का आगमन और सत्ता पर अधिकार

भारत मे अंग्रेजों का आगमन और सत्ता पर अधिकार

 

भारत मे अंग्रेजों का आगमन को एक नये युग का सूत्रपात माना जा सकता है।  सन् 1600 ई. में कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ से,  भारत से व्यापार करने की अनुमति ली।   इसके लिए उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक एक कम्पनी बनाई।  उस समय तक पुर्तगाली यात्रियों ने  भारत  की यात्रा का समुद्री मार्ग  खोज निकाला था।  उस मार्ग की जानकारी लेकर तथा व्यापार की तैयारी करके, इंग्लैण्ड से सन् 1608 में 'हेक्टर' नामक एक ज़हाज़ भारत के लिए रवाना हुआ।  इस ज़हाज़ के कैप्टन का नाम हॉकिंस था।  हेक्टर नामक ज़हाज़ सूरत के बन्दरगाह पर आकर रुका।  उस समय सूरत भारत का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। 

 

उस समय भारत पर मुगल बादशाह ज़हाँगीर का शासन था।  हॉकिंस अपने साथ इंग्लैण्ड के बादशाह जेम्स प्रथम का एक पत्र ज़हाँगीर के नाम लाया था।  उसने ज़हाँगीर के राज-दरबार में स्वयं को राजदूत के रूप में पेश किया तथा घुटनों के बल झुककर उसने बादशाह ज़हाँगीर को सलाम किया।  चूंकि वह इंग्लैण्ड के सम्राट का राजदूत बनकर आया था, इसलिए ज़हाँगीर ने भारतीय परम्परा के अनुरूप अतिथि का विशेष स्वागत किया तथा उसे सम्मान दिया।  ज़हाँगीर को क्या पता था कि जिस अंग्रेज कौम के इस तथाकथित नुमाइन्दे को वह सम्मान दे रहा है, एक दिन इसी कौम के वंशज भारत पर शासन करेंगे तथा हमारे शासकों तथा जनता को अपने सामने घुटने टिकवा कर सलाम करने को मजबूर करेंगे। 

 

उस समय तक पुर्तगाली कालीकट में अपना डेरा जमा चुके थे तथा भारत में व्यापार कर रहे थे।  व्यापार करने तो हॉकिंस भी आया था।  उसने अपने प्रति ज़हाँगीर की सहृदय तथा उदार व्यवहार को देखकर अवसर का पूरा लाभ उठाया।  हॉकिंस ने ज़हाँगीर को पुर्तगालियों के खिलाफ भड़काया तथा ज़हाँगीर से कुछ विशेष सुविधाएँ तथा अधिकार प्राप्त कर लिए।  उसने इस कृपा के बदले अपनी सैनिक शक्ति बनाई। 

 

पुर्तगालियों के ज़हाज़ों को लूटा।  सूरत में उनके व्यापार को भी ठप्प करने के उपाय किए।  तथा फिर इस तरह 6 फरवरी सन् 1663 को बादशाह ज़हाँगीर से एक शाही फरमान जारी करवा लिया कि अंग्रेजों को सूरत में कोठी (कारखाना) बनाकर तिजारत या व्यापार करने की इजाजत दी जाती है।  इसी के साथ ज़हाँगीर ने यह इजाजत भी दे दी कि उसके राज-दरबार में इंग्लैण्ड का एक राजदूत रह सकता है।  इसके फलस्वरूप सर टॉमस रो सन् 1615 में राजदूत बनकर भारत आया।  उसके  प्रयासों से सन् 1616 में अंग्रेजों को कालीकट तथा मछलीपट्टनम में कोठियाँ बनाने की अनुमति प्राप्त हो गई। 

 

शाहजहाँ के शासन-काल में, सन् 1634 में अंग्रेजों ने शाहजहाँ से कहकर कलकत्ते से पुर्तगालियों को हटाकर केवल स्वयं व्यापार करने की अनुमति ले ली।  उस समय तक हुगली के बन्दरगाह तक अपने ज़हाज़ लाने पर अंग्रेजों को भी चुंगी देनी पड़ती थी।  किन्तु शाहजहाँ की एक पुत्री का इलाज करने वाले अंग्रेज डॉक्टर ने हुगली में ज़हाज़ लाने तथा माल की चुंगी चुकाना क्षमा करवा लिया।  औरंगज़ेब के शासन-काल में एक बार फिर पुर्तगालियों का प्रभाव बढ़ चुका था।  मुंबई का टापू उनके अधिकार में था।  सन् 1661 में इंग्लैण्ड के सम्राट को यह टापू, पुर्तगालियों से दहेज में मिल गया।  बाद में सन् 1668 में इस टापू को ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इंग्लैण्ड के सम्राट से खरीद लिया।  इसके पश्चात अंग्रेजों ने इस मुंबई टापू पर किलेबंदी भी कर ली। 

 

सन् 1664 में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ही तरह भारत में व्यापार करने के लिए फ्रांसीसियों की एक कम्पनी आई।  इन फ्रांसीसियों ने सन् 1668 में सूरत में 1669 में मछलीपट्टनम में, तथा सन् 1774 में पाण्डिचेरी में अपनी कोठियां बनाई।  उस समय उनका प्रधान था – दूमास।  सन् 1741 में दूमास की जगह डूप्ले की नियुक्ति हुई।  लिखा है-''डूप्ले एक अत्यंत योग्य तथा चतुर सेनापति था।  उसके पूर्वाधिकारी दूमास को मुगल शासन के द्वारा 'नवाब' का खिताब मिला हुआ था।  इसलिए जब डूप्ले आया तो उसने स्वयं ही अपने को 'नवाब डूप्ले' कहना शुरू कर दिया।  डूप्ले पहला यूरोपीय निवासी था जिसके मन में भारत के अंदर यूरोपियन साम्राज्य कायम करने की इच्छा उत्पन्न हुई।  डूप्ले को भारतवासियों में कुछ खास कमजोरियां नज़र आईं।  जिनसे उसने पूरा-पूरा लाभ उठाया। 

 

एक यह कि भारत के विभिन्न नरेशों की इस समय की आपसी ईर्ष्या प्रतिस्पर्धा तथा लड़ाइयों के दिनों में विदेशियों के लिए कभी एक तथा कभी दूसरे का पक्ष लेकर धीरे-धीरे अपना बल बढ़ा लेना कुछ कठिन न था, तथा दूसरे यह कि इस कार्य के लिए यूरोप से सेनाएं लाने की आवश्यता न थी।  बल, वीरता तथा सहनशक्ति में भारतवासी यूरोप से बढ़कर थे।  अपने अधिकारियों के प्रति वफ़ादारी का भाव भी भारतीय सिपाहियों में जबर्दस्त था।  किन्तु राष्ट्रीयता के भाव या स्वदेश के विचार का उनमें नितांत अभाव था।  उन्हें बड़ी आसानी से यूरोपियन ढंग से सैनिक शिक्षा दी जा सकती थी तथा यूरोपियन अधिकारियों के अधीन रखा जा सकता था।  इसलिए विदेशियों का यह सारा काम बड़ी सुन्दरता के साथ भारतीय सिपाहियों से निकल सकता था।  डूप्ले को अपनी इस महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में केवल एक बाधा नज़र आती थी तथा वह थी अंग्रेजों की प्रतिस्पर्धा। ''

 

डूप्ले की शंका सही थी।  अंग्रेजों की निगाहें भारत के खजाने तथा यहाँ शासन करने पर लगी हुई थीं।  इसका एक प्रमाण यह मिलता है कि सन् 1746 में कर्नल स्मिथ नामक अंग्रेज ने जर्मनी के साथ मिलकर बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा विजय करने तथा उन्हें लूटने की एक योजना गुपचुप तैयार करके यूरोप भेजी थी। 

अपनी योजना में कर्नल स्मिथ ने लिखा था-

"मुगल साम्राज्य सोने तथा चाँदी से लबालब भरा हुआ है।  यह साम्राज्य सदा से निर्बल तथा असुरक्षित रहा है।  बड़े आश्चर्य की बात है कि आज तक यूरोप के किसी बादशाह ने जिसके पास जल सेना हो, बंगाल फतह करने की कोशिश नहीं की।  एक ही हमले में अनंत धन प्राप्त किया जा सकता है, जिससे ब्राजील तथा पेरु (दक्षिण अमेरिका) की सोने की खाने भी मात हो जाएंगी। "

"मुगलों की नीति खराब है।  उनकी सेना तथा भी अधिक खराब है।  जल सेना उनके पास है ही नहीं।  साम्राज्य के अंदर लगातार विद्रोह होते रहते हैं।  यहाँ की नदियाँ तथा यहाँ के बन्दरगाह, दोनों विदेशियों के लिए खुले पड़े हैं।  यह देश उतनी ही आसानी से फतह किया जा सकता है, जितनी आसानी से स्पेन वालों ने अमरीका के नंगे बाशिंदों को अपने अधीन कर लिया था। "
 
"अलीवर्दी खाँ के पास तीन करोड़ पाउण्ड (करीब 50 करोड़ रुपये) का खजाना मौजूद है।  उसकी सालाना आमदनी कम से कम बीस लाख पाउण्ड होगी।  उसके प्रांत समुद्र की ओर से खुले हैं।  तीन ज़हाज़ों में डेढ़ हजार या दो हजार सैनिक इस हमले के लिए काफी होंगे। "  (फ्रांसिस ऑफ लॉरेन को कर्नल मिल का पत्र)

जनरल मिल ने कुछ अधिक ही सपना देखा था।  किन्तु इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अंग्रेज भी अपने ऐसे ही मनसूबों को पूरा करने में जुटे हुए थे।  दरअसल विदेशियों द्वारा भारत को गुलाम बनाने की ये कोशिशें, भारतवासियों के लिए बड़ी लज्जाजनक बातें थीं-विशेष रूप से इसलिए कि इस योजना में स्वयं भारत के लोगों ने साथ दिया तथा आगे चलकर अपने पैरों में गुलामी की बेड़ियां पहन लीं।

जनरल मिल ने लिखा है-   "अठारहवीं सदी के मध्य में बंगाल के अंदर हमें यह लज्जानक दृश्य देखने को मिलता है कि उस समय के विदेशी ईसाई कुछ हिन्दुओं के साथ मिलकर देश के मुसलमान शासकों के खिलाफ बगावत करने तथा उनके राज को नष्ट करने की साजिशें कर रहे थे।  अंग्रेज कम्पनी के गुप्त मददगारों में खास कलकत्ते का एक मालदार पंजाबी व्यापारी अमीचंद था।  उसे इस बात का लालच दिया गया कि नवाब को खत्म करके मुर्शिदाबाद के खजाने का एक बड़ा हिस्सा तुम्हें दे दिया जाएगा तथा इंगलिस्तान में तुम्हारा नाम इतना अधिक होगा, जितना भारत में कभी न हुआ होगा।  कम्पनी के मुलाज़िमों को आदेश था कि अमीदंच की खूब खुशामद करते रहो। "


 
कम्पनी के वादों तथा अमीचंद की नीयत ने मिलकर, बंगाल के तत्कालीन शासक अलीवर्दी खाँ के तमाम वफ़ादारों को विश्वासघात करने के लिए तैयार कर दिया।  उधर कलकत्ते मे अंग्रेजों की तथा चन्द्रनगर में फ्रेंच लोगों की कोठियां बनाना तथा किलेबन्दी करना लगातार जारी था।  अलीवर्दी खाँ को इसकी जानकारी थी।  फिर जब उसे अमीचंद तथा दूसरे विश्वासघातकों की चाल का पता चला तो उसने उनकी सारी योजना विफल कर दी।  किन्तु इन सब घटनाओं से अलीवर्दी खाँ सावधान हो गया तथा पुर्तगालियों, अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों-तीनों कौंमो के मनसूबों का उसे पता चल गया। 

 

बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ को कोई बेटा न था, इसलिए उसने अपने नवासे सिराज़-उज़-दौला को, अपना उत्तराधिकारी बनाया था।  अलीवर्दी खाँ बूढ़ा हो चला था।  वह बीमार रहता था तथा उसे अपना अंत समय निकट आता दिखाई दे रहा था।  इसलिए एक दूरदर्शी नीतिज्ञ की तरह अलीवर्दी खाँ ने अपने नवासे सिराज़-उज़-दौला को एक दिन पास बुलाकर कहा-"मुल्क के अंदर यूरोपियन कौमों की ताकत पर नज़र रखना।  यदि स्वयं मेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से भी आजाद कर देता अब मेरे बेटे यह काम तुम्हें करना होगा।  तैलंग देश में उनकी लड़ाइयाँ तथा उनकी कूटनीति की ओर से तुम्हें होशियार रहना चाहिए।  अपने-अपने बादशाहों के बीच के घरेलू झगड़ों के बहाने इन लोगों ने मुगल सम्राट का मुल्क तथा शहंशाह की रिआया का धन माल छीनकर आपस में बांट लिया है।  इन तीनों यूरोपियन कौमों को एक साथ कमजोर करने का ख्याल न करना।  अंग्रेजों की ताकत बढ़ गई है।  पहले उन्हें खत्म करना।  जब तुम अंग्रेजों को खत्म कर लोगे तब, बाकी दोनों कौमें तुम्हें अधिक तकलीफ न देंगी।  मेरे बेटे, उन्हें किला बनाने या फौजें रखने की इजाजत न देना।  यदि तुमने यह गलती की तो, मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा। " 

 

10 अप्रैल सन् 1756 को नवाब अलीवर्दी खाँ की मृत्यु हो गई।  इसके बाद सिराज़-उज़-दौला, अपने नाना की गद्दी पर बैठा।  सिराज़-उज़-दौला की आयु उस समय चौबीस साल थी।  ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीतियों ने साजिशों का पूरा जाल फैला रखा था।  अंग्रेज नहीं चाहते थे कि सिराज़-उज़-दौला शासन करे।  इसलिए उन्होंने सिराज़-उज़-दौला का तरह-तरह से अपमान करना तथा उसे झगड़े के लिए उकसाने का काम शुरू कर दिया।  सिराज़-उज़-दौला जब मुर्शीदाबाद की गद्दी पर नवाब की हैसियत से बैठा तो रिवाज के अनुसार उसके मातहतों को, वजीरों, विदेशी कौमों के वकीलों को, राज-दरबार में हाजिर होकर नज़रे पेश करना जरूरी था।  किन्तु अंग्रेज कम्पनी की तरफ़ से सिराज़-उज़-दौला को कोई नज़र नहीं भेंट की गई।

 

कम्पनी हर हाल मे अपने व्यापारिक हितों की रक्षा और उनका विस्तार चाहती थी। कम्पनी १७१७ मे मिले दस्तक पारपत्र का प्रयोग कर के अवैध व्यापार कर रही थी जिस से बंगाल के हितों को नुकसान होता था । नवाब जान गया था कि कम्पनी सिर्फ़ व्यापारी नही थी और साथ सिराज़-उज़-दौला का नाना अलीवर्दी खाँ  मरने से पहले उसको होशियार कर गया था। १७५६ की संधि नवाब ने मजबूर हो कर की थी जिस से वो अब मुक्त होना चाहता था। कम्पनी ख़ुद ऐसा शासक चाहती थे जो उसके हितों की रक्षा करे । मीर जाफर , अमिचंद, जगतसेठ आदि अपने हितों की पूर्ति हेतु कम्पनी से मिल कर जाल बिछाने मे लग गए । सिराज़-उज़-दौला कम्पनी के इस रवैये नाराज़ हो गया जिसका परिणाम प्लासी के युद्ध के रूप में सामने आया।

 

प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में २२ मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे 'प्लासी' नामक स्थान में हुआ था. इस युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर थी बंगाल के नवाब की सेना. कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नबाव सिराज़ुद्दौला को हरा दिया था .किंतु इस युद्ध को कम्पनी की जीत नही मान सकते कयोंकि युद्ध से पूर्व ही नवाब के तीन सेनानायक, उसके दरबारी, तथा राज्य के अमीर सेठ जगत सेठ आदि से कलाइव ने षडंयत्र कर लिया था। नवाब की तो पूरी सेना ने युद्ध मे भाग भी नही लिया था युद्ध के फ़ौरन बाद मीर जाफर के पुत्र मीरन ने नवाब की हत्या कर दी थी। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है|

 

इस युद्ध से कम्पनी को बहुत लाभ हुआ । वह आई तो व्यापार हेतु थी किंतु बन गई शासक। इस युद्ध से प्राप्त संसाधनो का प्रयोग कर कम्पनी ने फ्रांस की कम्पनी को कर्नाटक के तीसरे और अन्तिम युद्ध मे निर्णायक रूप से हरा दिया था । इस युद्ध के बाद बेदरा के युद्ध मे कम्पनी ने ड्च कम्पनी को हराया था। कम्पनी ने इसके बाद कठपुतली नवाब मीर जाफर को सत्ता दे दी किंतु ये बात किसी को पता न थी के सत्ता कम्पनी के पास है. नवाब के दरबारी तक उसे "क्लाइव का गधा" कहते थे कम्पनी के अफ़सरों ने जम कर रिश्वत बटोरी बंगाल का व्यापार बिल्कुल तबाह हो गया था इसके अलावा बंगाल मे बिल्कुल अराजकता फ़ैल गई थी।

 

प्लासी के युद्ध में जीत से कम्पनी को लाभ स्वरूप प्राप्त हुआ-     भारत के सबसे समॄद्ध तथा घने बसे भाग से व्यापार करने का एकाधिकार, बंगाल के शासक पर भारी प्रभाव और बंगाल पर कम्पनी ने अप्रत्यक्ष सम्प्रभुता, बंगाल के नवाब से नजराना, भेंट, क्षतिपूर्ति के रूप मे भारी धन वसूली, एक सुनिश्चित क्षेत्र २४ परगना की जागीर का राजस्व मिलने लगा। बंगाल पर अधिकार व एकाधिकारी व्यापार से इतना धन मिला कि इंग्लैंड से धन मँगाने कि जरूरत नही रही ,इस धन को भारत के अलावा चीन से हुए व्यापार मे भी लगाया गया । इस धन से सैनिक शक्ति गठित की गई जिसका प्रयोग फ्रांस तथा भारतीय राज्यों के विरूद्ध किया गया । देश से धन निष्काष्न शुरू हुआ जिसका लाभ इंग्लैंड को मिला वहां इस धन के निवेश से ही औद्योगिक क्रांति शुरू हुई ।

 

इस घटना से एक नई राजनेतिक शक्ति का उदय हुआ। कम्पनी के हित राजनीति से जुड़ गए अऔर् वह प्रभुत्व प्राप्ति मे जुट गई। मुग़ल साम्राज्य के दुर्बलता भी साफ हो गई .कम्पनी को भारत के शासक वर्ग की चरित्र, फूट का पता लग गया। प्लासी के युद्ध के बाद सतारुध हु॥ मीर जाफ़र अपनी रक्षा तथा पद हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी पर निर्भर था। जब तक वो कम्पनी का लोभ पूरा करता रहा पद पे भी बना रहा। उसने खुले हाथो से धन लुटाया, किंतु प्रशाशन सभांल नही सका, सेना के खर्च, जमींदारों की बगावातो से हालत बिगड़ रहा था, लगान वसूली मे गिरावट आ गई थी, कम्पनी के कर्मचारी दस्तक का जम कर दुरूपयोग करने लगे थे वो इसे कुछ रुपयों के लिए बेच देते थे इस से चुंगी बिक्री कर की आमद जाती रही थी बंगाल का खजाना खाली होता जा रहा था। हाल्वेल ने माना की सारी मुसीबत की जड़ मीर जाफर है, उसी समय जाफर का बेटा मीरन मर गया जिस से कम्पनी को मौका मिल गया था उसने मीर कासिम जो जाफर का दामाद था को सत्ता दिलवा दी। इस हेतु एक संधि भी हुई २७ सितम्बर १७६० को कासिम ने ५ लाख रूपये तथा बर्दवान, मिदनापुर, चटगांव के जिले भी कम्पनी को दे दिए। इसके बाद धमकी मात्र से जाफ़र को सत्ता से हटा दिया गया मीर कासिम सत्ता मे आ गया। इस घटना को ही १७६० की क्रांति कहते है।

 

मीर कासिम ने रिक्त राजकोष, बागी सेना, विद्रोही जमींदार जेसी  समस्याओ का हल निकाल लिया। बकाया लागत वसूल ली, कम्पनी की मांगे पूरी कर दी, हर क्षेत्र मे उसने कुशलता का परिचय दिया। अपनी राजधानी मुंगेर ले गया, ताकि कम्पनी के कुप्रभाव से बच सके सेना तथा प्रशासन का आधुनिकीकरण शुरू कर दिया। उसने दस्तक पारपत्र के दुरूपयोग को रोकने हेतु चुंगी ही हटा दी। मार्च १७६३ मे कम्पनी ने इसे अपने विशेषाधिकार का हनन मान युद्ध शुरू कर दिया। लेकिन इस बहाने के बिना भी युद्ध शुरू हो ही जाता क्योंकि दोनों पक्ष अपने अपने हितों की पूर्ति मे लगे थे। कम्पनी को कठपुतली चाहिए थी लेकिन मिला एक योग्य हाकिम। १७६४ युद्ध से पूर्व ही कटवा, गीरिया, उदोनाला, की लडाईयो मे नवाब हार चुका था उसने दर्जनों षड्यन्त्र्कारियो को मरवा दिया (वो मीर जाफर का दामाद था और जानता था कि सिराजुदोला के साथ क्या हुआ था।)

 

मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नही पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी । जनवरी 1764 मे मीर कासिम उस से मिला। उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे। इन्हीं परिस्थितियों मे बक्सर की लड़ाई, 23 अक्टूबर 1764 में बक्सर शहर के करीब, ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नबाब मीर कासिम, अवध के नबाब शुजाउद्दौला तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच लड़ी गई थी  जिसमे हैक्टर मुनरो के सेनापतित्व में अंग्रेज कंपनी ने तीनो को हरा दिया था। लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई और इसके परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और बांग्लादेश का दीवानी और राजस्व अधिकार अंग्रेज कंपनी के हाथ चला गया ।

 

बक्सर के युद्ध के परिणाम बेहद मह्ताव्पूर्ण निकले। सहज ही प्रयास से पूरा अवध कम्पनी को मिल गया था। नवाब शुजाउदौला की हालत इतनी गिर गई की उसने कम्पनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था (मई 1765)। शाह आलम भी कम्पनी की शरण मे आ गया था। बंगाल अब कम्पनी का अधीनस्थ राज्य बन गया, अवध उस पर आश्रित तथा मुग़ल सम्राट कम्पनी का पेंशन भोगी। ये सभी कार्य इलाहाबाद की संधि (16 अगस्त 1765) से हुआ इस के बाद बंगाल, बिहार, उडिसा, झारखण्ड की दीवानी कम्पनी को मिल गई थी। बंगाल मे द्वैध शासन शुरू हो गया। इसके बाद दिल्ली पर भी अंग्रेजों का प्रभाव और फ़िर अधिकार हो गया।


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Haider Ajaz

Arrival of Europeans in the political situation unstable

Over India since times immemorial has been refined and advanced country. Civilization of any country in the world Sandhav its civilization was not less important. Lord Buddha was born on earth as its master, who on the whole world as my own family and to have mercy on all creatures have an eternal message. Ashoka ruled that the strength of Dewananpriy here on power, love - on the strength of his empire expanded and Jan - Jan's heart became Samrat. Pal of Bengal during the kings over India Thaneshwar Nreshon and promote such education - systems and teaching institutions in various countries of the world organization that curious students and knowledge - Pipasu Vidwan, Bubuksha of their mental satisfaction and knowledge - to achieve here come.

Time had reversed and the Muslims in Kalantr rule over India - has loads Ld. Early in the Turks and later middle ages Chugtai - Mughal rule began to establish a permanent empire. Permanent rule in East and Central part in India, many temporary and explosive attacks. Pllvon, Skon Hunon infiltration and proved short. Alexander, explosive attack and Abdali Ahmdshah Nadirshah and over. Ottoman and Mughal permanently to establish a rule. And even after shedding the blood of many Muslims for centuries ruled the winner could not distorted Indian culture. In contrast, in the colors of Indian culture have Rngte. From their bases abroad, he broke his old relations with the Indians put their fate added.

Of life of people with their practical needs, the more compelled to establish a social relationship. According to the new environment and in the interest of administration, its principles and beliefs concerning the governance and in order modified. Its many foreign customs - customs and Indian life, and he abandoned the elements Sunskriti assumed. Only negligible history of Indian pride and country and his sword religion (Islam) was in front of Srihin. Became the Indian, India was already his country. Dr. Ram Manohar Lohia wrote: "Ram and Rahim were one, two Hindus and Muslims alike Sntanen earth was."

Muslim rulers and administration in the development of Indian culture was an important contribution. The principle of sovereignty has Balwn Giasuddin, Allauddin various states Kilji North and South India have won All-India message, Sher Shah Suri by establishing best administration has become the archetype of the British rulers, Akbar the Hindu - Muslim unity and coordination and the artistic growth and excellence Sdpryas Shahjahan had reached the summit. But even in this regime is strict basis of Indianness. Although the Muslim occupation of India because many political and cultural changes in ancient societies did, however, and form the basis for its ancient culture remains mostly - of - was Tyon. Indians affected and they admire him Nwagnhukon followed. "He was brought into vogue by Vijtaon learned new social practices.

Protestant emphasis on monotheism and egalitarian society, the influence of Islam certain reactions generated, and a stirring born in Hindu religion and social practices. Muslim languages and speech and writing Sahityon widespread impact of the Hindus. New words, phrases and literary forms in the soil, roots country, new symbols and ideas by Son and his ideas - the style was concluded. A new literary language and how it evolved Mdhyugin Architecture, painting and music with the arts - in other arts and a great change came a new style was born, only two of which were existing schema. The process begun in the thirteenth century, five hundred years he continued .1

In the third phase change in India's history. Indians because of foot and divisive elements in the eighteenth century, India dominated the British frozen. India's first time in history that this administration and fortune around - a string of decisions went into the hands of foreign nation, whose homeland was located several thousand miles away. For India, this kind of dependency was a new experience altogether, because many attacks on India in the past was what Time - Part Time Indian state temporarily joined the colonies were winners, but few such opportunities came to their duration was only meager.

But the British ruled India as a foreigner. Few British rulers of India were such who understood their country and ruled trigger feelings and welfare. The trade and economic exploitation of India through political means and money - Drainage (drain of wealth) to adopt the policy of the country turned hollow. The Indians always hurt the moral morale. Pages of the history of this period, it proved that British power in India set up a While After a dismal environment was established in the country and Andkarpuarn thick, on the other hand there

The country began to emerge and the British sense of libido Ingland the right people from India and all their rights lapsed objects began accepting country. India for access to Ingland became their main approach. In short, the British authorities were not sympathetic towards Indian people and were not aware of the welfare of Indians. Law or rule in relation to Ingland created in India began, the British policy towards them remained for India's interests Ingland must always be sacrificed. Because of this policy of British India increasingly economically poor and culturally inferior to be gone. Keshav Chandra Sen (1838-84) of his time in India's decline is portrayed Agrlikit words:

"Today we see that one lying around the nation - a nation whose ancient greatness was carriage is lying in ruins. Its national literature and science, his spiritual knowledge and philosophy, its industry and commerce, its social prosperity and which counted such Garhsthik simplicity and sweetness of the goods is almost past. When we spiritual, social and intellectual terms, desolate, dismal, and neutral scenes is spread before us - we have inspected the land useless Kalidas it - poetry, science and civilization have attempted to identify the country. 'Dr. Theodor rightly wrote that "chiefly for economic benefit to the British East India Company established the state and has spread.

India's pride was at its height Satrhvin century and reached its peak had its Mdhyugin culture. But like - as one after शताब्दियाँ Bitin Well - As European civilization at the center of the sky rapidly growing sun and the sky began in the darkness Chhane. Soon covered the land and therefore the moral decline and political chaos, dark shadows became long and .3 It is true that traffic in education administration and the Indians received from foreign rule made several concurrent, but not deny the fact can be done to the British policy of greater Anushiln Arthoparjn did. That's why where Indians and Muslims accepting the rule included in the history of her Indian rule there Angrjon their sovereign, he considered, from the depths of the heart did not accept his rule and started protesting against their expressed from . India can never become English, and always remained overseas in time, all gone native.

The Indians certainly not accept foreign rule was. Bengal Siraj, from the time period of the Delhi's Bahadur was the Indian forces opposing voices arise. Sun since 1857 and also highlighted the spirit of revolt and resistance began to catch. Ultimately August, leaving Britain in 1947 British India had to go back. English period of the rise of Indian history - the collapse of this article subject - area.

India's political situation then

In India, two major force in politics at the time of arrival of foreigners were: Mughal and Maratha. Were gone and had become decadent Mughal Maratha developing. Reality was that the death of Aurangzeb (1707) After getting no power and all the small central India - has become divided into small states. At the commencement of the eighteenth century, the Mughal Empire Crmrate had to be poised to decline. In various states of the empire started walking and they struggle each other to grab began the creation of sustainable Sdyantr. Aurangzeb's death, Europe's already being felt in different nations over India's arrival. This species of the country were seeing Ldkdhati politics and rampant lawlessness.

Mughal Empire decadent status:

Almost fifty years of Shahjahan posthumously by Aurangzeb Mughal Empire was in charge of the size, population and glory of the states in terms of contemporary world was unparalleled. Aurangzeb was very hard and Kartwyanisht administrator. One of his vast administration - a topic he was looking after themselves and every military campaign was directed. Akshay in elation and strong desire - was power. However, after careful so hard 1 Nishtayukt holy life and administrators, diplomats and generals as his regime failed despite his unquestioned ability. He himself knew this. In his letter to his second son Azam He admitted: I rule and the Sultanate's true welfare of the farmers could not exactly that. So precious, life was useless .2

For the period of Aurangzeb's rule was very Sambla limit, but reversed his death in politics - began to turn. In 1712 Bengal, Bihar and Orissa nominal Nazim Azimuddeshan died. So these three geo - parts of Nazim's vacancy. In early 1713 Frrukshiyr sitting on the throne, who was a man of character Gnaspd. That's false promises, ungrateful to his Hitasion, Fraud - Yoga tyrant, unstable mind, was cowardly and cruel. The evil ruler during the three provinces of Murshidkuli Nazim Khan reportedly acquired the post. Bihar and Orissa and civil rights Nijamt Murshidkuli itself been used. Bengal and sometimes - sometimes in Orissa Syed Ikram Khan, Sujauddin Khan, Syed Rajkhan, Ulla and enjoy being appointed positions are Divni Niabt Srfroj Khan. The energy balance is not enough time left in the Mughal rule that distant province of Bengal like to see - can take right. Starting time distribution of posts in civil Nijamt and the King of Delhi was their own choice, but now the office of Nazim Murusi time Murshidkuli Khan (hereditary) was appointed.

By this time the Union began to power and rule clearly visible Ldkdhati economic situation had invaded. Revenue decreased, communications - were drifting tools and industry, trade and agriculture began to meet local nature. Center - began to dominate opponents powers, justice and order was deteriorating, personal and public morality has been shaken. Empire pieces - pieces gone and combating foreign invasions and internal enemies, broke his power. Now representatives of European nations started to interfere in Indian affairs.

Mughal politics rapidly reversed now - turn the start. Posthumously by his son Nawab Khan Murshidkuli Sujauddin Khan (1725-39) and his son Arudh post of Nazim Khan Srfraj appointed his Diwan. Also, Mirza also enjoy Ulla were appointed Mirhbib Naib Nazim. After some time, in addition to the post of Dewan Srfraj Khan was appointed to the post of Naib Nazim. But actually with Ghalib Ali Khan and Jaswant Rao Naib Dewan served. After her son Srfraj Shujauddin Khan (1739-40) for the reins सँभाली Nijamt. At a meeting this duty of civil posts were in the hands, which were special member Haji Ahmad and Jagat Seth and Bihar Nijamt were appointed on Alivrdi Khan. Alivrdi Khan mahout war (1740-51) after Srfraj Khan sitting on the throne of Bengal. Muhammad Khan was appointed Dewan their time Nwajis and Dhaka became the Naib Nazim. Naib Nazim appointed in the province of Bihar and Orissa Habtjng Nawab Ginuddin Khan Naib Nazim in the war's Sult. Sirajuddula (1756-57) was Alivrdi Khan's grandson. He made Mohanlal and his Diwan Jasart Khan (1756-81) Naib Nazim of Dhaka is. In the famous battle of Plassey in Bengal Sirajuddula period of the resulting foreign rule in the country laid the foundation for the first time.

In short, the death of Aurangzeb the battle of Plassey, from time to time the former Bengal, Bihar and Orissa politics began to be unaffected by the Mughal administration. Sukumar Bhattacharya wrote is true before Aurangzeb's death had begun to take the head Sdyantrkari powers.

अस्थिर भारतीय राजनीतिक स्थिति मे यूरोपीयों का आगमन

भारतवर्ष प्राचीन काल से ही सुसंस्कृत तथा उन्नत देश रहा है। इसकी सैन्धव सभ्यता विश्व के किसी भी देश की सभ्यता से कम महत्त्व की नहीं थी। इसकी धरती पर ही भगवान बुद्ध जैसे महापुरुष पैदा हुए जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को ही अपना कुटुम्ब माना तथा समस्त जीवों पर दया करने का शाश्वत सन्देश दिया। यहीं देवानांप्रिय अशोक ने शासन किया जिसने शक्ति के बल पर नहीं, प्रेम-बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और जन-जन के हृदय का सम्राट् बन गया। बंगाल के पाल नरेशों एवं थानेश्वर के राजाओं के काल में भारतवर्ष में ऐसी प्रोन्नत शिक्षा-प्रणाली तथा शिक्षण संस्थाओं का संगठन हुआ कि संसार के विभिन्न देशों के जिज्ञासु छात्र और ज्ञान-पिपासु विद्वान्, अपनी मानसिक बुभुक्षा की तृप्ति तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए यहाँ आये।

कालान्तर में समय ने पलटा खाया और भारतवर्ष पर मुसलमानों का शासन-भार लद गया। आरम्भिक मध्य युगों में तुर्क और बाद में चुगताई-मुगल स्थायी साम्राज्य स्थापित कर शासन करने लगे। स्थायी शासन के पूर्व एवं मध्य भाग में भारत पर कई अस्थायी एवं तूफानी आक्रमण हुए। पल्लवों, शकों और हूणों की घुसपैठ अल्पकालीन सिद्ध हुई। सिकन्दर, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के तूफानी आक्रमण हुए और समाप्त हुए। स्थायी रूप से तुर्क और मुगल ही शासन कायम कर सके। अनेकों का खून बहाकर और सदियों तक शासन करके भी मुस्लिम विजेता भारतीय संस्कृति को विकृत न कर सके। इसके विपरीत, वे भारतीय संस्कृति के रंग में रंगते गये। अपने विदेश स्थित ठिकानों से उन्होंने अपने पुराने सम्बन्धों को तोड़ डाला और भारतीयों के साथ अपना भाग्य जोड़ डाला।

जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उन्हें अपनी प्रजा के साथ अधिकाधिक सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने को विवश किया। नये वातावरण के अनुसार और प्रशासन के हित में, उन्होंने शासन और व्यवस्था सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों तथा मान्यताओं में भी परिवर्तन किये। अपने कितने ही विदेशी रीति-रिवाजों को उन्होंने त्याग दिया और भारतीय जीवन तथा सुंस्कृति के तत्त्वों को ग्रहण कर लिया। केवल कहने भर को भारतीय गौरव और देश का इतिहास उनकी तलवार तथा धर्म (इस्लाम) के सामने श्रीहीन हुआ था। वे भारतीय बन गए थे, भारत उनका देश हो चुका था। डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है : ‘राम और रहीम एक थे, हिन्दू और मुसलमान एक ही धरती की दो सन्तानें थीं।’

मुस्लिम शासकों ने भारतीय संस्कृति एवं प्रशासन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। गियासुद्दीन बलवन ने संप्रभुता का सिद्धान्त दिया, अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तरी तथा दक्षिण भारत के विविध राज्यों को जीतकर अखिल भारत का संदेश दिया, शेरशाह सूरी श्रेष्ठ प्रशासन की स्थापना करके ब्रिटिश शासकों का भी आदर्श बन गया, अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं समन्वय का सद्प्रयास किया और शाहजहाँ ने कलात्मक उन्नति एवं श्रेष्ठता को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।किन्तु इस शासन में भी भारतीयता का आधार यथावत् रहा। यद्यपि मुस्लिम आधिपत्य के कारण भारत के प्राचीन समाजों में कई राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन आये, तथापि उसकी प्राचीन संस्कृति का आधार और स्वरूप अधिकांशतः ज्यों-का-त्यों रहा। भारतीयों ने नवागन्तुकों को प्रभावित किया और वे उनसे प्रभावित भी हुए। ‘उन्होंने विजताओं द्वारा प्रचलन में लाई गई नई सामाजिक पद्धतियाँ सीखीं।

कट्टर एकेश्वरवाद और समतावादी समाज पर बल देने वाले इस्लाम धर्म के प्रभाव ने कतिपय प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की, और हिन्दू धर्म तथा सामाजिक पद्धतियों में एक आलोड़न पैदा हुआ। मुसलमानों की भाषाओं और साहित्यों ने हिन्दुओं की वाणी और लेखन पर व्यापक प्रभाव डाला। नये शब्द, मुहावरे और साहित्यिक विधाओं ने इस देश की धरती में जड़े जमाई और नये प्रतीकों तथा धारणाओं ने उनकी विचार-शैली को सम्पन्न किया। एक नई साहित्यिक भाषा विकसित हुई और कितनी ही मध्युगीन वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कलाओं के साथ-साथ अन्य कलाओं में भी भारी परिवर्तन आये और ऐसी नई शैलियों ने जन्म लिया, जिनमें दोनों के ही तत्त्व विद्यमान थे। तेरहवीं शताब्दी में यह जो प्रक्रिया आरम्भ हुई, वह पाँच सौ वर्ष तक चलती रही।1

तीसरे चरण में भारत के इतिहास में परिवर्तन आया। भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हजार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी।

भारत पर अंग्रेजों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज शासक हुए जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और धन-निकासी (drain of wealth) नीति अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने, इस बात को सिद्ध करते हैं कि एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहाँ दूसरी ओर

इस देश के प्रति इंगलैण्ड की अधिकार लिप्सा की भावना उभरने लगी तथा अंग्रेज लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंगलैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया। संक्षेप में, अंग्रेज प्रशासन न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखते थे और न भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग रहे थे। इंगलैण्ड में जो कानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि भारत के हितों का इंगलैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेजों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। केशव चन्द्र सेन (1838-84) ने अपने समय के भारत के पतन का चित्रण अग्रलिखित शब्दों में किया है :

‘आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र- एक ऐसा राष्ट्र जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय साहित्य और विज्ञान, उसका अध्यात्म ज्ञान और दर्शन, उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य जो हमारे सामने फैला हुआ है- का निरीक्षण करते हैं तो हम व्यर्थ ही उसमें कालिदास के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं। ‘डॉ. थ्योडोर ने ठीक ही लिखा है कि ‘प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया है।

सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का सूर्य तेजी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।3 यह सही है कि प्रशासन एवं यातायात तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि जहाँ भारतीयों ने मुसलमानों के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के इतिहास में शामिल किया वहाँ उन्होंने अंग्रजों को अपना संप्रभु नहीं माना, हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। अंग्रेज कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये।

यह विदेशी शासन भारतीयों को कतई स्वीकार नहीं था। बंगाल के सिराज के काल से लेकर दिल्ली के बहादुरशाह के काल तक भारतीय शक्तियों का विरोध स्वर उठता रहा। सन् 1857 के बाद से विद्रोह और विरोध की भावना और भी जोर पकड़ने लगी। अन्ततोगत्वा अगस्त, 1947 में अंग्रेजों को भारत छोड़कर ब्रिटेन वापस जाना पड़ा। अंग्रेजी के काल के भारतीय इतिहास का उत्थान-पतन ही इस आलेख का विषय-क्षेत्र है।

भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्ति थीं : मुगल और मराठा। मुगल पतनोन्मुख हो चले थे और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि औरंगजेब की मृत्यु (1707) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए मुगल साम्राज्य को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगजेब की मृत्यु के पहले से ही यूरोप की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।

मुगल साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति :

शाहजहाँ के मरणोपरान्त लगभग पचास वर्ष तक मुगल साम्राज्य की बागडोर औरंगजेब के हाथों में रही, जो आकार, जनसंख्या और वैभव की दृष्टि से समकालीन विश्व के राज्यों में अतुलनीय था। औरंगजेब अत्यन्त ही कठोर एवं कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक था। अपने विशाल प्रशासन के एक-एक विषय की वह देखभाल करता था और हर सैनिक अभियान का स्वयं निर्देशन करता था। उसमें अक्षय स्फूर्ति और प्रबल इच्छा-शक्ति थी। फिर भी, इतनी मेहनत सतर्क देखभाल निष्ठायुक्त पवित्र जीवन1 तथा प्रशासक, कूटनीतिज्ञ और सेनापति के रूप में उसकी असंदिग्ध योग्यता के बावजूद उसका शासन असफल रहा। वह स्वयं भी इस बात को जानता था। अपने द्वितीय पुत्र आजम को लिखे अपने पत्र में उसने स्वीकार किया था : मैं सल्तनत की सच्ची हुकूमत और किसानों की भलाई एकदम नहीं कर सका हूँ। इतनी बेशकीमती जिन्दगी बेकार गई।2

औरंगजेब के काल तक शासन बहुत सीमा तक सम्भला रहा, किन्तु उसके मरते ही राजनीति में उलट-फेर होने लगी। 1712 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा का नाममात्र का नाजिम अजीमुद्देशान चल बसा। अतः इन तीनों भू-भागों के नाजिम का स्थान रिक्त हो गया। सन् 1713 में फर्रुखशियर गद्दी पर बैठा, जो एक घणास्पद चरित्र का व्यक्ति था। वह अपने वचन का झूठा, अपने हितैषियों के प्रति कृतघ्न, कपट-योग उत्पीड़क, अस्थिर चित्त, कायर और क्रूर था। इस बुरे शासक के काल में मुर्शिदकुली खाँ ने कथित तीनों प्रान्तों के नाजिम का पद प्राप्त कर लिया। बिहार और उड़ीसा में मुर्शीदकुली स्वयं निजामत तथा दीवानी के अधिकारों का प्रयोग करता रहा। बंगाल और कभी-कभी उड़ीसा में सैयद इकराम खान, सुजाउद्दीन खान, सैयद राजखान, लुत्फ उल्ला और सरफरोज खान नियाबत दीवनी के पदों पर नियुक्त होते रहे। इस समय मुगल शासन में इतनी भी शक्ति शेष न रह गई कि वह बंगाल जैसे सुदूर प्रान्त की देख-भाल ठीक रख सकता। प्रारम्भिक समय में निजामत तथा दीवानी पदों का वितरण दिल्ली का बादशाह स्वयं अपनी इच्छानुसार करता था, किन्तु अब मुर्शिदकुली खान के समय में नाजिम का पद मौरुसी (वंशानुगत) ठहराया गया।

इस समय तक केन्द्रीय सत्ता स्पष्ट रूप से लड़खड़ाती दृष्टिगोचर होने लगी और शासन की आर्थिक स्थिति पर दुष्प्रभाव पड़ा। राजस्व घट गया, संचार-साधन लड़खड़ा गये और उद्योग, व्यापार तथा कृषि को स्थानीय स्वरूप मिलने लगा। केन्द्र-विरोधी शक्तियाँ हावी होने लगीं, न्याय और व्यवस्था बिगड़ गई, वैयक्तिक और सार्वजनिक नैतिकता हिल गई। साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गये और विदेशी आक्रमणों तथा आन्तरिक शत्रुओं का मुकाबला करने की उसकी शक्ति टूट गई। अब यूरोपीय राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भारतीय मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया।

मुगल राजनीति में अब तेजी से उलट-फेर प्रारम्भ हुए। नवाब मुर्शिदकुली खान के मरणोपरान्त उसका दामाद सुजाउद्दीन खान (1725-39) नाजिम के पद आरूढ़ हुआ और अपने पुत्र सरफराज खान को अपना दीवान नियुक्त किया। साथ ही, मिर्जा लुत्फ उल्ला भी मीरहबीब नायब नाजिम के पद पर नियुक्ति किये गये। कुछ समय के उपरान्त सरफराज खान को दीवान के पद के अतिरिक्त नायब नाजिम के पद पर नियुक्त किया गया। किन्तु वास्तव में गालिब अली खान और जसवन्त राव नायब दीवान के साथ कार्य करते रहे। शुजाउद्दीन खान के उपरान्त उसका पुत्र सरफराज (1739-40) ने निजामत की बागडोर सँभाली। इसके समय में दीवानी पद के कर्तव्य एक सभा के हाथ में थे, जिसके विशेष सदस्य हाजी अहमद और जगत सेठ थे तथा बिहार की निजामत पर अलीवर्दी खान नियुक्त किये गये थे। अलीवर्दी खान महावत जंग (1740-51) सरफराज खान के पश्चात् बंगाल की गद्दी पर बैठे। इनके समय में नवाजिश मुहम्मद खान दीवान नियुक्त हुए और ढाका के नायब नाजिम भी बने। बिहार प्रान्त में नवाब जीनउद्दीन खान हैबतजंग नायब नाजिम नियुक्ति हुए और उड़ीसा में शौलत जंग नायब नाजिम रहा। सिराजुद्दौला (1756-57) अलीवर्दी खान का नवासा था। उसने मोहनलाल को अपना दीवान बनाया और जसारत खान (1756-81) ढाका का नायब नाजिम रहा। सिराजुद्दौला के काल में बंगाल में प्रसिद्ध प्लासी की लड़ाई हुई जिसके फलस्वरूप देश में पहली बार विदेशी शासन की नींव पड़ी।

संक्षेप में, औरंगजेब की मृत्यु काल से लेकर प्लासी की लड़ाई के पूर्व काल तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा की राजनीति मुगल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी। सुकुमार भट्टाचार्य ने लिखा है यह सत्य है कि औरंगजेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं उन्हें धूल-धूसरित कर दिया और अब औरंगजेब के वंश में कोई ऐसा नहीं रहा जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि मुगलों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुगलों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगजेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था। औरंगजेब के सारे के सारे उत्तराधिकारी जहाँदार शाह, फर्रूखशियर मुहम्मद शाह आदि अयोग्य थे जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुगल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी बन बैठे। इस कारण साम्राज्य में चारों तरफ अशान्ति, उपद्रव षड्यन्त्र आदि के बाजार गर्म हो गये।

जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलुषित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वजीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित खजाने का अधिकांश लूटा दिया। सोना, चाँदी और बाबर के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीजें उड़ा दी गईं। युवक मुहम्मदशाह को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ था। उत्तर भारत के राज्यों का उल्लेख किया ही जा चुका है, दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे।

दक्षिण में निजाम उल-मुल्क आसिफ जान और अवध में बुरहान-उल-मुल्क सआदत अली खाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन रूहेलखण्ड के अफगान पठानों ने भी किया। मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्यभारत, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपनी राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के मैदान में मराठों को पराजय न मिली होती तो आज भारतीय इतिहास की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं ?

मराठों का उत्कर्ष

मुगल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौका तो मिला ही, भारत की एक अन्य शक्ति मराठा भी अपना विकास करती गई और मुगल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता कायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक अंग्रेज इतिहासकार लिखता है कि औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। इस समय दक्षिण भारत की यह दशा थी कि प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुगलों का सामना मराठों से था जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे और अन्त में मराठे मुगलों पर छा गये।

मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने किया था। औरंगजेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली तथा बीजापुर के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगजेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र मराठा राज्य की स्थापना कर ली जिसे विवश होकर मुगल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन मुगल साम्राज्य की कमजोरी का परिचायक है।

शिवाजी के उत्तराधिकारियों-शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय और शाहूजी ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद पेशवाओं की प्रधानता मराठा राज्य में कायम हो गई। बालाजी विश्वनाथ (1713-20), बाजीराव प्रथम (1720-40) और बालाजी बाजीराव (1740-61) नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में कायम रखा। यद्यपि एक दिन में मराठे अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने भारत की एक महान शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। प्लासी की लड़ाई के बाद वे औरंगजेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए।

अन्य शक्तियों का उद्भव: उत्तर मुगलकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में सिक्खों, राजपूतों, जाटों तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुगलों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने राजपूताना में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने रुहेलखण्ड में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली।

सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुगल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी अनैक्यपूर्ण स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिला।


विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन

भारतवर्ष में विदेशियों का आगमन मुख्यतः दो मार्गों से हुआ : स्थल मार्ग और जल मार्ग (सामुद्रिक) मार्ग से। उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा को लाँघकर स्थल मार्गों के द्वारा तथा विभिन्न सामुद्रिक मार्गों द्वारा भारतवर्ष में प्रवेश किया। स्थल मार्गों से ही मुसलमान भारत आये थे। मुगल शासकों ने अपने काल में विदेशियों के आगमन को रोकने के लिए बड़ी स्थल-सेना तो रखी, किन्तु वे जल-सेना के महत्त्व को नहीं समझ सके और इसलिए उनके काल में अरक्षित समुद्र-मार्गों से उनके यूरोपीय लोग भारत–प्रवेश में सफल हो गये। भारत आकर यूरोप की व्यापारिक जातियों के लोग भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ देने लगे।

प्राचीन काल से ही भारत एवं पश्चिम के देशों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे और वे एक-दूसरे के साथ व्यापार करते थे। परन्तु सातवीं शताब्दी से अरबों ने हिन्द महासागर तथा लाल महासागर के सामुद्रिक व्यापार पर कब्जा कर लिया। वे अपनी बड़ी नावों में भारतीय सामानों को भरकर पश्चिम से ले जाते थे और उन्हें वेनिस तथा जेनेवा के सौदागरों के हाथ बेचते थे। पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम चतुर्थांश में भारत में यूरोप के लोगों का प्रवेश अधिक होने लगा। इसके कुछ विशेष कारण थे।

यूरोप में रेनेसॉ आया था जिसने यूरोपवासियों को कला, साहित्य, विज्ञान, भौगोलिक खोजों आदि के क्षेत्र में प्रगति एवं परिवर्तन लाने का नया दृष्टिकोण दिया था। किन्तु रेनेसॉ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव भौगोलिक खोज पर पड़ा। भौगोलिक खोज के सिलसिले में पश्चिम की जातियों का भारत के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना और यहाँ आना निश्चित-सा हो गया। जब भारतीय शासकों ने स्थल-मार्ग पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये और विदेशी व्यापारियों को विभिन्न व्यापारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तब इन व्यापारियों ने स्थल मार्ग को छोड़कर जल-मार्ग का पता लगाना प्रारम्भ किया। उनका श्रम निष्फल नहीं गया। उन्होंने सामुद्रिक मार्ग खोज निकाले।

नये सामुद्रिक मार्गों की खोज की सारा श्रेय पुर्तगालियों को प्राप्त है। पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी (1393-1460) ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाया। उसने एक प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की जहाँ नाविकों को वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षण दिया जाने लगा और उन्हें जल-परिभ्रमण कला की बारीकियाँ बतलायी जाने लगीं। उसने सामुद्रिक यात्रियों को विभिन्न प्रकार की मदद देकर सामुद्रिक यात्रा के लिए उत्प्रेरणा दी। उसी के सहयोग तथा सहायता के फलस्वरूप अफ्रीकी समुद्र-तटों की खोज करने में पुर्तगाली सफल हुए। हेनरी इस बात में विश्वास करता था कि एक दिन पुर्तगाल के साहसिक यात्री अफ्रीका की परिक्रमा करते-करते निश्चित रूप से भारत जाने का मार्ग खोज निकालने में सफल होंगे।

हेनरी से उत्साहित होकर ही बार्थोलोम्यू डियाज ने 1488 ई. में अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण भाग तथा की यात्रा की और उत्तमाशा अन्तरीप को पार कर गया। इसके पूर्व पुर्तगाल के नाविक 1471 ई. में विषुवत् रेखा को पार कर चुके थे और 1484 ई. में कांगों तक पहुँच गये थे। पुर्तगाल के एक अन्य राजा जॉन द्वितीय ने कोविल्हम तथा पेबिया नामक नाविकों को मिस्र के मार्ग से हिन्द महासागर की खोज के लिए भेजा। इनमें कोविल्हम को अधिक सफलता मिली। वह यात्रा के सिलसिले में भारत में मालाबार तट तक आ धमका तथा वहाँ से अरब पार करते हुए उसने अफ्रीका के पूर्वी तट पर अपने चरण धरे।

इन खोजों से प्रभावित होकर पुर्तगालवासी वास्कोडिगामा नामक एक सामुद्रिक यात्री ने 17 मई 1498 ई. को केप ऑफ गुडहोप होकर भारत जाने का मार्ग ढ़ूँढ़ निकाला। इस प्रसिद्ध यात्री ने 8 जुलाई 1497 ई. को अपनी यात्रा प्रारम्भ की और उत्तमाशा। अन्तरीप तथा मोजाम्बीक पार करते हुए भारत के पश्चिमी तटीय प्रदेश कालीकट आ गया।
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